सड़क पार की खिड़कियाँ

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ज्यों दुनिया के अधिकतर देशों में सेकंड स्ट्रीट होती है, ज्यों हर हिल स्टेशन पर मॉल रोड, वैसे ही यह एक चमचमाती नई सड़क है जो लगभग हर गाँव, हर शहर, हर देश में उपस्थित है। अनजानी राहों पर चलने के लिए हौसला चाहिए। शुरू में झिझक हुई लेकिन अब इसका अजनबीपन मुझे सुहाता है। यह सड़क ज्यों एक अलग ही दुनिया में ले जाती है। जगमगाती हुई सुंदर, स्वप्निल, परीलोक सी! यूँ भी कह सकते हैं कि इस सड़क पर आ, आप पूरी दुनिया को अपनी मुट्ठी में कैद कर सकते हैं। हर शाम मैं यहाँ दूर तक निकल जाती हूँ। कोई मुझे जज नहीं करता, मैं भी किसी को नहीं पहचानती। यहाँ अनगिनत जगमगाते घरों में, असंख्य खिड़कियाँ हैं जो अपनी सुविधानुसार खुलती, बंद होती रहती हैं। कब कौन सी खिड़की खुलेगी..

Full Novel

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सड़क पार की खिड़कियाँ - 1

सड़क पार की खिड़कियाँ डॉ. निधि अग्रवाल (1) ज्यों दुनिया के अधिकतर देशों में सेकंड स्ट्रीट होती है, ज्यों हिल स्टेशन पर मॉल रोड, वैसे ही यह एक चमचमाती नई सड़क है जो लगभग हर गाँव, हर शहर, हर देश में उपस्थित है। अनजानी राहों पर चलने के लिए हौसला चाहिए। शुरू ...Read More

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सड़क पार की खिड़कियाँ - 2

सड़क पार की खिड़कियाँ डॉ. निधि अग्रवाल (2) लंचब्रेक में मैंने आज एकांत नहीं तलाशा… सबके साथ ही लंच बॉस वहाँ से गुज़रा पर मेरी हँसी नहीं छीन पाया। मैं सुरुचि का हाथ पकड़े रही। शायद उसी समय अमन ने भी मेरे कान में शलभ का कोई सीक्रेट बताया था और शलभ उसे मारने दौड़ा था। अमन वहीं बैठा रहा लेकिन बॉस डर कर भाग गया। जाने क्यों ऑफिस में मैंने कई बार वह सड़क तलाशी। मुझे लगता है कि यहीं-कहीं आस-पास है पर काम की अधिकता से मैं तलाश नहीं पाई। आज दिन और शाम के बीच दूरी ...Read More

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सड़क पार की खिड़कियाँ - 3

सड़क पार की खिड़कियाँ डॉ. निधि अग्रवाल (3) स्वर मासूम है। मैं अपने द्वंद से स्वयं ही आहत। सपने हमें रुला सकते हैं। आभासी दुनिया यथार्थ से अधिक करीबी हो सकती है। हर ज़हीन व्यक्ति का अनदेखा एक क्रूर चेहरा होता है। कई क्रूर आँखोंं के आँसूओं ने धोए हैं धरती के दाग। कुरूप सच या मोहक झूठ किस का चुनाव सुखकर है? जो दुनिया को नहीं छल पाते, वे स्वयं को छलते हैं। वे निष्काम प्रेम में विश्वास करते हैं। हर रिश्ते में एक विक्टिम है, एक कलप्रिट। कुछ लोग हर रिश्ते में ही विक्टिम का रोल पाते ...Read More

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सड़क पार की खिड़कियाँ - 4 - अंतिम भाग

सड़क पार की खिड़कियाँ डॉ. निधि अग्रवाल (4) 'नहीं, आऊँगा। पर सज़ा गुनाह पर ही मिलनी चाहिए न। कोई किया है क्या?' प्रेम सबसे बड़ा गुनाह है। भीतर तक तोड़ देता है। मैं कहना चाहती हूँ। पर नहीं कहती। उन्होंने कब कहा वह मुझसे प्रेम करते हैं। मैं ही कब उनसे प्रेम करती हूँ। दो टूटे हुए साज़ है जो साथ होने पर एक दूजे के अधूरेपन की तसल्ली बन जाते हैं। 'यकीन करो। मैं कभी तुम्हें दुख नहीं पहुँचा सकता। जब पुकारोगी आ जाऊँगा। जब उकता जाओगी चला जाऊँगा।' 'और उकताहट आपकी तरफ से हुई तब?' 'कभी भी ...Read More