प्रतिशोध-

(74)
  • 73.6k
  • 16
  • 25.6k

दूर पहाड़ों के बीच बसा एक राज्य जिसका नाम पुलस्थ है, धन-धान्य से परिपूर्ण, जहां की प्रजा के मुंख पर सदैव प्रसन्नता वास करती है,उस राज्य के राजा है हर्षवर्धन,जो आज पड़ोसी राज्य के राजा से युद्ध जीतकर आने वाले हैं,उनके स्वागत की तैयारियों में आज राजमहल की सभी दास दासियां ब्यस्त हैं और राजा की तीनों रानियां अपने अपने झरोखो पर खड़ी राजा के आने की प्रतीक्षा कर रहीं हैं।‌।

Full Novel

1

प्रतिशोध--भाग(१)

प्रतिशोध--भाग(१) दूर पहाड़ों के बीच बसा एक राज्य जिसका नाम पुलस्थ है, धन-धान्य से परिपूर्ण, जहां की प्रजा के पर सदैव प्रसन्नता वास करती है,उस राज्य के राजा है हर्षवर्धन,जो आज पड़ोसी राज्य के राजा से युद्ध जीतकर आने वाले हैं,उनके स्वागत की तैयारियों में आज राजमहल की सभी दास दासियां ब्यस्त हैं और राजा की तीनों रानियां अपने अपने झरोखो पर खड़ी राजा के आने की प्रतीक्षा कर रहीं हैं।‌। ये ज्ञात हुआ है कि राजा ने युद्ध में एक नर्तकी भी जीती है जो नृत्य करती है तो ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे दामिनी कड़क ...Read More

2

प्रतिशोध--भाग(२)

उधर गुरु कुल में__ चूड़ामणि...!तुमने अत्यन्त घृणित अपराध किया है, तुमने एक स्त्री को किया, आचार्य शिरोमणि बोले।। नहीं.. आचार्य,ये पाप नहीं है,वो स्त्री अत्यन्त वृद्ध थी,यदि मैं उसे नदी में डूबते हुए ना बचाता तो वो अपने प्राण गवां बैठती, मैंने तो केवल उसकी सहायता की थी, मैं उसे ना बचाता तो स्वयं से आंखें ना मिला पाता,ये अपराध नहीं है गुरुदेव ये तो मानवता है, चूड़ामणि बोला।। जो भी हो मुझे नहीं ज्ञात है, परन्तु इस गुरूकुल के शिष्यों को स्त्रियों का स्पर्श वर्जित है तो ये मेरी दृष्टि में अपराध ही हुआ एवं ...Read More

3

प्रतिशोध--भाग(३)

रात्रि हुई सत्यकाम अपनी कुटिया में पड़े पुवाल से बने बिछावन पर लेट गया, परन्तु निद्रा उसके नेत्रों से दूर थी,उसकी कुटिया वैसे भी एकांत में सबसे अलग थी इसलिए कम लोग ही गुजरते थे उधर से, उसका मन व्याकुल था वो किसी से वार्तालाप करना चाहता था अपने मन में हो रहे कौतूहल को किसी से कहना चाहता था परन्तु असमर्थ था,अपने समीप किसी को ना देखकर उसका मन कुछ गाने को करने लगा और वो अपने बिछावन पर लेटे लेटे वहीं भजन गुनगुनाने लगा जो प्रात: माया गा रही थी।। वो मन में सोचने लगा कि ...Read More

4

प्रतिशोध--भाग(४)

सत्यकाम ने जैसे ही प्राँगण में प्रवेश किया तो ___ ये कैसी अवहेलना हैं, सत्यकाम! तुम अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर सकते तो तुम्हें उसका उत्तरदायित्व अपने हाथों में लेने का कोई अधिकार नहीं है, अब मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मेरा निर्णय उचित नहीं था,कदाचित तुम अभी इस योग्य नहीं हो कि इस गुरूकुल का कार्यभार तुम्हारे हाथों में सौंपा जाएं,आचार्य शिरोमणि क्रोधित होकर सत्यकाम से बोले।। आचार्य! मेरी भूल क्षमा योग्य नहीं हैं, आज मैने बिलम्ब कर दिया, समय से पूजा अर्चना में नहीं पहुँच पाया,परन्तु इसका कारण जाने बिना आप मुझ पर ...Read More

5

प्रतिशोध--भाग(५)

उधर माया अपनी इस जीत पर अत्यधिक प्रसन्न थीं, उसे स्वयं पर गर्व हो रहा था कि जैसा वो थीं, बिल्कुल वही हो रहा है, सत्यकाम को मुझ पर दया है और इस दया को अब प्रेम में परिवर्तित होते देर नहीं लगेगी, जिस दिन उस ने अपने हृदय की बात मुझसे कही उसी दिन आचार्य शिरोमणि का नाम धूमिल हो जाएगा और मेरे प्यासे हृदय की प्यास बुझेगी___ माया ये सब मधुमालती से कह रही थीं,तभी मधुमालती बोली___ परन्तु देवी! कल रात को आप समय से अपनी झोपड़ी में ना पहुँच पातीं तो अनर्थ हो जाता,सत्यकाम ...Read More

6

प्रतिशोध--भाग(६)

सत्यकाम गंगातट से माया से बिना बात किए चला तो आया परन्तु उसका मन अत्यधिक विचलित था,भावों की भँवर प्रेमरूपी सरिता में डुबोएं दे रही थीं, माया के होठों के स्पर्श ने उसके तन और मन में कामरूपी अग्नि प्रज्वलित कर दी थीं, उसे कहीं भी शांति नहीं मिल रही थीं, उसें मन में भावों का बवंडर उमड़ पड़ा था,उसकी आँखें बस अब माया को ढ़ूढ़ रहीं थीं,उसका चंचल चित्त बस माया की ओर ही भाग रहा था,उसके मन में उठतीं उमंगों को वो स्वयं ही नहीं समझ पा रहा था कि ये क्या है? प्रेम या वासना या ...Read More

7

प्रतिशोध--भाग(७)

सत्यकाम को मणिशंकर ने जो मार्ग सुझाया था,वो सत्यकाम को भा गया और प्रातः होते ही वो गंगा स्नान मार्ग पर निकल पड़ा और माया की झोपड़ी जा पहुँचा, उसने एक दो बार माया को पुकारा परन्तु माया ने कोई उत्तर ना दिया और ना ही किवाड़ खोले,अब सत्यकाम के क्रोध की सीमा ना रहीं, उसे लगा कि माया अब भी उससे बात नहीं करना चाहती,वो उदास गंगातट की ओर चल पड़ा और मार्ग में उसे माया भजन गाती हुई दिखीं,उसकी प्रसन्नता का अब कोई भी ठिकाना ना था।। वो माया के निकट पहुँचा ही था कि उसके ...Read More

8

प्रतिशोध--भाग(८)

रात्रि गहराने लगी थीं, चन्द्रमा का प्रकाश भी धूमिल सा था क्योंकि कल अमावस्या है, सत्यकाम ने मणिशंकर को मित्र! सो गए क्या? किन्तु मणिशंकर ने सत्यकाम के प्रश्न का कोई उत्तर ना दिया,कदाचित वो निंद्रा में लीन था,अब तो सत्यकाम के हृदय में जो कौतूहल था उसे शांत करना उसके लिए सम्भव ना था,यदि माया उससे प्रेम करती है तो उसे स्वीकार क्यों नहीं कर लेती,ऐसा करके वो मेरे मन की शांति क्यों भंग करना चाहती है, सत्यकाम ने मन में सोचा।। अर्द्धरात्रि बीत चुकी थी परन्तु, सत्यकाम को अपने बिछावन पर निंद्रा नही आ रही ...Read More

9

प्रतिशोध--भाग(९)

योगमाया की बात सुनकर सत्यकाम कुछ आशंकित सा हुआ,उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मैं अब माया प्रेम स्वीकार करूँ या अस्वीकार क्योंकि माया ने तो मेरे समक्ष नेत्रहीन बनने का अभिनय किया,साधारण लड़की बनकर मेरे हृदय के संग खिलवाड़ किया और इतना ही नहीं उसने विश्वासघात भी किया है मेरे संग की वो निर्धन है,ना जाने कितने झूठ बोले मुझसे।। किन्तु, मेरा हृदय तो कहता है कि अब भी मुझे उससे प्रेम हैं, कुछ भी हो उसने मेरे जीवन को एक नई दिशा प्रदान की है, उसने मुझे व्यवाहारिक होना सिखाया है, यदि मैने ये ...Read More

10

प्रतिशोध--(अन्तिम भाग)

जब मणिशंकर को ये ज्ञात हुआ कि सत्यकाम राजनर्तकी योगमाया से प्रेम करता है तो उसने सोचा,अब तो तनिक बिलम्ब नहीं करना चाहिए, ये सूचना शीघ्र ही आचार्य शिरोमणि तक पहुँचनी चाहिए और कितना अच्छा हो कि ये सूचना सर्वप्रथम मेरे द्वारा ही आचार्य को मिले।। और मणिशंकर उसी क्षण बिना बिलम्ब किए ही गुरुकुल की ओर चल पड़ा,रात्रि का समय हो चला था कुछ अँधेरा भी गहराने लगा था,किन्तु मणिशंकर को किसी का भय ना था,उसे तो बस श्रेष्ठ शिष्य की उपाधि चाहिए ,जिसके लिए वो कुछ भी कर सकता था।। उसके पाँव की गति इतनी ...Read More