भुइंधर का मोबाइल

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भुइंधर का मोबाइल - प्रदीप श्रीवास्तव भाग १ अम्मा आज विवश होकर आपको यह पत्र लिख रही हूँ , क्योंकि मोबाइल पर यह सारी बातें कह पाने की हिम्मत मैं नहीं जुटा पाई। आप जानती हैं कि मैं ऐसा क्यों कर रही हूं? क्योंकि आपका बेटा भुइंधर! सुनो अम्मा आप इस बात के लिए गुस्सा न होना कि मैं अपने पति-परमेश्वर और आपके बड़े बेटे का नाम ले रही हूँ । क्योंकि दिल्ली में आकर आपका बेटा बहुत बदल गया है। जिन साहब के यहां गाड़ी चलाते हैं, यह उन्हीं की तरह सब कुछ करने की कोशिश करते हैं। उनकी

Full Novel

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भुइंधर का मोबाइल - 1

भुइंधर का मोबाइल - प्रदीप श्रीवास्तव भाग १ अम्मा आज विवश होकर आपको यह पत्र लिख रही हूँ , मोबाइल पर यह सारी बातें कह पाने की हिम्मत मैं नहीं जुटा पाई। आप जानती हैं कि मैं ऐसा क्यों कर रही हूं? क्योंकि आपका बेटा भुइंधर! सुनो अम्मा आप इस बात के लिए गुस्सा न होना कि मैं अपने पति-परमेश्वर और आपके बड़े बेटे का नाम ले रही हूँ । क्योंकि दिल्ली में आकर आपका बेटा बहुत बदल गया है। जिन साहब के यहां गाड़ी चलाते हैं, यह उन्हीं की तरह सब कुछ करने की कोशिश करते हैं। उनकी ...Read More

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भुइंधर का मोबाइल - 2

भुइंधर का मोबाइल - प्रदीप श्रीवास्तव भाग 2 हां तो आने के बाद मैंने घर को जो भटियारखाना बना था उसे वास्तव में घर बनाया। यह रात को लौटे तो साफ-सुथरा घर देख कर बोले ‘अरे वाह मेरी रानी तुमने तो एकदम काया ही पलट दी।’ फिर हमको बांहों में जकड़ लिया और मुंह भर चूम-चूम कर गीला कर दिया। तब मुझे इनके मुंह से शराब का ऐसा भभका मिला कि मेरा सिर चकरा गया। ये शराब के नशे में बुरी तरह धुत्त थे। मार हमको चूमें जाएं, रगड़े-मसले जाएं। किसी तरह खुद को छुड़ा कर अलग हुई तो ...Read More

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भुइंधर का मोबाइल - 3

भुइंधर का मोबाइल - प्रदीप श्रीवास्तव भाग 3 जानती हैं अम्मा आपका पूत बड़ा जबरा है। इतना जबरा कि भी और रोने भी न दे। मगर मेरी भी एक ही धुन थी कि इन्हें रास्ते पर लाना है, तो मैं अपनी बात पर अड़ी रही। फिर अचानक ही इन्होंने मेरी साड़ी का आंचल पकड़ कर खींच लिया कस कर। मगर मैं इनकी पकड़ से बचने के लिए दूसरी तरफ लुढ़कती गई। इनके हाथ मैं नहीं सिर्फ़ मेरी साड़ी लगी। अब इनका सुर बदलने लगा। बोले ‘देख नौटंकी न कर सीधे आ जा। नहीं तो दुशासन की तरह चीर हरण ...Read More

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भुइंधर का मोबाइल - 4 - अंतिम भाग

भुइंधर का मोबाइल - प्रदीप श्रीवास्तव भाग 4 अंततः मुझे कमरे के अंदर झांकने का रास्ता नजर आ गया। खाने वाली मेज के पास लगी कुर्सियों में से एक खींच कर उस खिड़की के पास लगाई जिसके ऊपरी हिस्से के पास पर्दा कुछ इंच हटा था और वहां से अंदर देखा जा सकता था। मेरे पैर थरथरा रहे थे। अम्मा पूरे बदन में मैं पसीने का गीलापन महसूस कर रही थी। दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। मगर जिद के आगे सब बेकार था। मैं अपने पति-परमेश्वर की रक्षा के लिए कुछ भी करने को तैयार थी। इसीलिए कुर्सी ...Read More