राम रचि राखा

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दोपहर हो चुकी थी। ध्रुव को सुलाकर मैं आफिस के लिए तैयार होने लगी थी। शान्ति खाना बना रही थी। तभी कालबेल बजा। कौन आ गया इस समय...सोचते हुए मैने दरवाजा खोला। तीन साल बाद अचानक अनुराग को देखकर मेरे पैर वहीं जम से गये। आँखें खुली रह गयीं। पिछले तीन सालों से जो क्रोध, क्षोभ और पीड़ा हिमखंडों सी मन में जमी हुई थी, इन पलों की छुवन पाकर तरल हो गई और उसने आँखों की पुतलियों को ढँक लिया। सामने सब कुछ धुँधला हो गया। इससे पहले कि आँसू पलकों की सीमा लाँघ पाते, मैंने उन्हे वापस अन्दर धकेल दिया।

Full Novel

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राम रचि राखा - 1 - 1

राम रचि राखा अपराजिता (1) दोपहर हो चुकी थी। ध्रुव को सुलाकर मैं आफिस के लिए तैयार होने लगी शान्ति खाना बना रही थी। तभी कालबेल बजा। कौन आ गया इस समय...सोचते हुए मैने दरवाजा खोला। तीन साल बाद अचानक अनुराग को देखकर मेरे पैर वहीं जम से गये। आँखें खुली रह गयीं। पिछले तीन सालों से जो क्रोध, क्षोभ और पीड़ा हिमखंडों सी मन में जमी हुई थी, इन पलों की छुवन पाकर तरल हो गई और उसने आँखों की पुतलियों को ढँक लिया। सामने सब कुछ धुँधला हो गया। इससे पहले कि आँसू पलकों की सीमा लाँघ पाते, मैंने उन्हे वापस ...Read More

2

राम रचि राखा - 1 - 2

राम रचि राखा अपराजिता (2) तीसरे दिन, जब मैंने ऑफिस में अपना मेल बॉक्स खोला तो देखा अनुराग का मेल था। सब्जेक्ट में "गुड मोर्निंग" लिखा था- हेलो वाणी! कैसी हो? उम्मीद करता हूँ कि घर पर डांस प्रैक्टिस करती होगी। आज मैंने इंटरनेट से सालसा और चा चा चा के कुछ म्यूजिक डाउनलोड किए। मुझे लगता है कि इससे मुझे घर पर प्रैक्टिस करने में मदद होगी। तुम्हें भी भेज रहा हूँ। सच कहूँ, मैंने डांस क्लास ज्वाइन तो कर लिया था लेकिन आश्वस्त नहीं था कि कितने सप्ताह रुक पाउँगा। लेकिन अब अच्छा लगने लगा है। तुम्हारा सहयोग मुझे प्रोत्साहित करता है। अब ...Read More

3

राम रचि राखा - 1 - 3

राम रचि राखा अपराजिता (3) क्लास में बताया गया था कि अगले हप्ते से वर्कशॉप शुरू होगा। डेढ़ महीने वर्कशॉप के बाद सिरीफोर्ट आडिटोरियम में लाइव परफोर्मेंस होना था। अगले हप्ते से क्लास का समय एक घंटे बढा दिया गया था। उस एक दिन के बाद से अनुराग का कोई मेल नहीं आया था। फिर भी जब अपना मेल बॉक्स खोलती थी तो अचेतन मन में कहीं एक प्रतीक्षा सी रहती थी। आजकल ऑफिस में काफी वर्कलोड बढ़ गया था और मुझे रात के बारह-एक बजे तक काम करना पड़ता था। शाम के पाँच बजने वाले थे। मैं ऑफिस में ही थी। काम में ...Read More

4

राम रचि राखा - 1 - 4

राम रचि राखा अपराजिता (4) दिन बहुत तेजी से निकल रहे थे। दो सप्ताह कब बीत गये पता भी चला। इस बीच अनुराग से फोन पर और इ-मेल से बातचीत की आवृत्ति बढ़ गई थी। जिस भी रुप में वे मेरी जिन्दगी में थे, सुखद लग रहा था। शायद मुझे उनकी आदत सी पड़ने लगी थी। उस शनिवार को पंद्रह अगस्त था। डांस क्लास बंद था। सुबह के काम निबटाते-निबटाते बारह बज गये। हमलोग आज देर से भी उठे थे। छुट्टी के दिन प्रायः ऐसा ही होता था। हम देर तक सोते रहते थे। पूर्वी को जाना था। उसका कोई दूर का ...Read More

5

राम रचि राखा - 1 - 5

राम रचि राखा अपराजिता (5) अगले दिन रविवार को डांस क्लास से जब बाहर निकले तो लान से गुजरते एक बेंच पर हम बैठ गये। कुछ देर तक डांस स्टेप्स के बारे में बातें करते रहे। जब हम चलने को तैयार हुए तो उसने कहा, "अगर तुम्हारे नॉर्मल वोर्किंग आवर्स होते तो हम वीक डेज़ में भी कभी शाम को मिल सकते थे न।" मैं उनकी तरफ देखने लगी थी। ऐसा लगा कि जैसे कोई बच्चा बड़ी मासूमियत से चोकलेट माँग रहा हो। 'हम अब भी मिल सकते हैं...शाम को मैं कभी-कभी जब वर्क लोड ज्यादा न हो तो एक आध ...Read More

6

राम रचि राखा - 1 - 6

राम रचि राखा अपराजिता (6) अक्टूबर आधा बीत चुका था। रात में हवाएँ शीतल होने लगी थीं। बरसात की पूरी तरह ख़त्म हो चुकी थी। अनुराग से मिले लगभग साढ़े तीन महीने हो चुके थे। इस बीच हम एक दूसरे को पूरी तरह न सही पर बहुत हद तक समझने लगे थे। एक दूसरे की कही को मानने लगे थे और अनकही को जानने लगे थे। जब वह साथ होता तो मन खिल उठता था। मन में एक अतिरिक्त उर्जा का संचार होने लगता था। कभी कभी मैं उससे किसी बात के लिये जिद कर बैठती थी। कभी उसे छेड़ने लगती ...Read More

7

राम रचि राखा - 1 - 7

राम रचि राखा अपराजिता (7) उस दिन मैं अनुराग का पोर्ट्रेट बना रही थी। तय हुआ था कि वह और रविवार दो दिन तीन-तीन घंटे निकालेगा। उस दिन रविवार था। हमारा फ्लैट दो बेडरूम का था। एक कमरे में बेड था जिसमे मैं और पूर्वी सोते थे। दूसरे कमरे में मेरी पेंटिंग्स के सामान रखे थे। उसी में अनुराग का पोर्ट्रेट बना रही थी। वह एक कुर्सी पर बैठा था। लगभग तीन बज रहा होगा। पूर्वी खाना खाकर बेडरूम में लेटी थी। तभी डोरबेल बजा। मैंने दरवाजा खोला तो सामने गौरव, ऋषभ, विनोद, और प्रीति खड़े थे। "ओह्हो...आज तो पूरी फ़ौज ...Read More

8

राम रचि राखा - 1 - 8

राम रचि राखा अपराजिता (8) फरवरी शुरु हो गया था। ठण्ड काफ़ी कम हो चुकी थी। फिर भी शाम छह बजे तक धुंधलका छाने लगता था। उस दिन अनुराग मेरी ओफिस आया। आते ही बोला, “तुम्हारे लिए एक सरप्राईज़ है।“ "क्या...?" मेरी प्रश्नवाचक दृष्टि उसके चेहरे की तरफ उठ गई। "उसके लिए तुम्हें मेरे साथ चलना होगा...तुम्हारे पास एक-दो घंटे हैं? "अधिक समय तो नहीं लगेगा...? साढ़े आठ बजे मेरी एक मीटिंग है।" "तब तक हम वापस आ जाएँगे।" मैं अनुराग के साथ चल पड़ी। अनुराग ने अपनी कार एक नए बने हुए हाऊसिंग काम्प्लेक्स के अन्दर रोकी। मुझे थोड़ा ...Read More

9

राम रचि राखा - 1 - 9

राम रचि राखा अपराजिता (9) उस दिन मेरा जन्मदिन था। अनुराग ऑफिस के काम से कहीं बाहर गया था। की बधाई देने के लिए सुबह से मेरे मित्रों के फोन आने लगे थे। हर बार जब फोन की घंटी बजती तो मैं सोचती कि अनुराग का फोन होगा। लेकिन दोपहर तक उसका फोन नहीं आया। मैं जानती थी कि वह जब बाहर जाता था तो बहुत व्यस्त होता था। दोपहर के बाद उसका फोन आया। मैं सोच रही थी कि व्ह मुझे जन्मदिन की बधाई देंगा, लेकिन दस मिनट तक बात करने के बाद उन्होंने फोन रख दिया। जन्मदिन के ...Read More

10

राम रचि राखा - 1 - 10

राम रचि राखा अपराजिता (10) मैं अनुराग को लेकर अब थोड़ी सतर्क हो गई थी। चाहती थी कि ऐसी न उत्पन्न हों जिससे हम दोनों को किसी तरह का भी मानसिक कष्ट हो। सामान्य स्थितियों में वह बहुत सदय होता था। मेरा बहुत ख़याल रखता था। बहुत प्यार करता था। किन्तु नियति को शायद कुछ और ही मंजूर था। उस दिन हम एक मूवी देखने गये थे। टिकेट के लिए लम्बी कतार थी। हमारे पास पहले से ही टिकेट था। अभी मूवी शरू होने में थोड़ा समय बाकी था। टिकेट खिड़की से थोड़ी दूर हटकर एक चबूतरा सा था। हम उसपर ...Read More

11

राम रचि राखा - 1 - 11

राम रचि राखा अपराजिता (11) समय तो अपनी गति से चलता रहता है। अनुराग के गये हुये तीन साल गये। अब ध्रुव लगभग ढ़ाई साल का हो गया है। एलबम में अनुराग की फोटो देखकर उसे पहचानने लगा है। वैसे तो तीन साल बहुत लम्बा समय नहीं होता है, किन्तु मेरे लिये पिछले तीन साल तीन युग के बराबर थे। अनुराग के प्रति मन मे क्रोध तो था। लेकिन शायद मेरा प्रेम इतना सबल था कि इतने कष्टों के बाद भी मैं कभीं उससे घृणा नहीं कर पाई। अचेतन मन में एक प्रतीक्षा सी बनी रहती थी। लगता था कि ...Read More

12

राम रचि राखा - 2 - 1

राम रचि राखा गोपाल (1) नदी का कछार। किनारे से कुछ ऊपर दो चर्मकर्मी नदी में बहकर आए मरे बैल का चमड़ा निकाल रहे थे। उनके पास ही बैठकर गोपाल उन्हे काम करता हुआ देख रहा था। सुबह के लगभग दस बजे होंगे। क्या रे गोपला! यहाँ आकर बैठा है! दस कदम दूर से ही चन्दू चीखते हुए गोपाल की ओर झपटे। आवाज सुनते ही गोपाल स्प्रिंग की तरह उठ खड़ा हुआ और पनपनाकर भागा। चन्दू उसके पीछे दौड़े और चालीस-पचास कदम की दौड़ के बाद उसे दबोच लिए। ग्यारह साल के गोपाल के कदम, अठारह साल के बड़े भाई के ...Read More

13

राम रचि राखा - 2 - 2

राम रचि राखा गोपाल (2) “गोपाल अब पढ़ाई करने लगा है।“ ऐसा चन्दू लोगों से कहते थे। वास्तव में को अभी भी शब्द ज्ञान नहीं हो पाया था। हाँ तीन-चार सप्ताह में इतना अवश्य हुआ था कि कक्षा में मास्टर जी ने पीट-पीट कर उसे "शेर और चूहे" वाली कविता जुबानी याद करा दी थी। एक दिन चन्दू उसकी किताब लेकर बैठे और उसे पढने के लिए बोले। वह वही पाठ खोलकर भर्राटे से पढ़ने लगा। चन्दू को लगा कि अब वह पढ़-लिख जाएगा। एक दिन जब चाचा अपने स्कूल से साढ़े चार बजे कमरे पर लौटे गोपाल नहीं था। ...Read More

14

राम रचि राखा - 3 - 1

राम रचि राखा तूफान (1) "वापस होटल चलें? देखो सब लोग निकलने लगे हैं। लगता है पार्क बंद होने समय हो गया है।" विक्टोरिया मेमोरियल के उद्यान में एक पेड़ के नीचे बेंच पर बैठी हुई सप्तमी ने सौरभ से कहा। "नहीं मम्मा...अभी नहीं।" सौरभ के कुछ कहने से पहले ही अंश बीच में बोल पड़ा। वह बेंच के चारों ओर चक्कर काट रहा था। उसे बहुत आनंद आ रहा था। सूरज डूब चुका था। पेड़ पर चिड़ियों की चहचहाहट बढ़ गयी थी। हवा में हल्की ठण्ड थी। दिसंबर आरंभ हो गया था। "मैं तो बर्थडे बॉय की इच्छा के अनुसार काम करूँगा।" सौरभ ने मुस्कराते हुए कहा। ...Read More

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राम रचि राखा - 3 - 2

राम रचि राखा तूफान (२) सुन्दर वन की यात्रा कैनिंग घाट से आरम्भ होने वाली थी। जो कि सियालदाह से लगभग पैंतालीस किलोमीटर दूर था। सौरभ के पास कैनिंग तक जाने के दो विकल्प थे। एक टैक्सी और दूसरा लोकल ट्रेन। उसने ट्रेन चुना। सौरभ सदैव ट्रेन की यात्रा को वरीयता देता है। यहाँ तो एक बड़ा कारण यह भी था कि स्थानीय लोगों के साथ यात्रा करने को मिलेगा। यहाँ की संस्कृति और संस्कारों से साक्षात्कार हो सकेगा। ट्रेन में भिन्न-भिन्न तरह के लोग मिलते हैं। तरह-तरह की चीजें बिकती हैं। फेरीवालों के विलक्षण तरीके और आवाज बहुत मनोरंजक होते हैं। ट्रेन के भीतर ...Read More

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राम रचि राखा - 3 - 3

राम रचि राखा तूफान (३) सुबह आठ-साढ़े आठ बजे तक सबलोग मोटरबोट में आ गए। नाव चल पड़ी। नदी चौड़े पाठ के दोनों ओर जंगल ही जंगल दिखाई देने लगे। ये जंगल ही बाघों के निवास स्थान थे। सबके मन में एक ही आशा थी कि कहीं बाघ दिख जाए। लेकिन बाघ तो कभी कभार ही दिखते हैं। हाँ किनारे पर धूप सेंकते मगरमच्छ और गोह अवश्य दिखाई देने लगे। साथ ही जंगल के अंदर हिरनो के झुण्ड भी घास चरते हुए लक्षित होने लगे। सबलोग चित्र लेने में व्यस्त हो गए। पहला पड़ाव पीरखली था। पीरखाली के बाद देउल बरनी, बनबीबी बरनी होते हुए दो-बंकी टाइगर रिज़र्व फारेस्ट में ...Read More

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राम रचि राखा - 3 - 4

राम रचि राखा तूफान (४) दो घंटे के बाद तूफान का जोर थम गया। सबकी जान में जान आयी। बच गए। नीचे पूरा पानी-पानी हो गया था। बहुत से लोग नीचे से ऊपर आ गए। ऊपर के मेज सारे उड़ गए थे। कुर्सियाँ जो नाव की रेलिंग से बँधी हुयी थीं वे बच गई थीं। किन्तु उनमें से कई पानी के थपेड़ों के प्रहार से टूट चुकी थीं। नाविक के केबिन का पिछला हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया था। किन्तु आगे का भाग अभी भी सुरक्षित था। दोनों नाविक अपनी जगह पर डँटे हुए थे। कई लोग ऊपर आकर घूमने फिरने लगे थे। किन्तु कुछ लोग अभी भी भय से नीचे ...Read More

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राम रचि राखा - 3 - 5

राम रचि राखा तूफान (5‌) सुबह उजाला होते ही नाविक ने डीजल भरा और नाव चला दी। नाव में खाने के लिए थोड़े से कोंदो के अलावा कुछ भी नहीं था। दूध का एक बूँद भी नहीं बचा था। बच्चे क्या पियेंगे? थोड़ी ही देर में बच्चों का क्रंदन आरम्भ हो गया। घोष बाबू का पौत्र और एक दूसरा बच्चा, दोनों ही भूख से चिल्लाने लगे। अंश भी खाना माँगने लगा। रामकिशोर की बेटी भी लगभग आठ-नौ साल की रही होगी। वह भी खाना-खाना रटने लगी। सप्तमी ने अंश को कुछ बिस्कुट खाने को दिया। वह हमेशा अपने बैग में ...Read More

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राम रचि राखा - 3 - 6

राम रचि राखा तूफान (6) सुबह किसी में उठने की हिम्मत नहीं थी। बच्चे कुनमुनाकर उठे और भूख से देर रोए। लेकिन जल्दी ही अशक्त होकर शांत हो गए। आधे से अधिक लोग मरणासन्न हो चुके थे। साँसें चल रही थीं, किंतु वे शक्तिहीन थे। शरीर का पानी निचुड़ चुका था। कई लोग सारी आशा छोड़कर अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करने लगे। सूरज ऊपर आसमान पर चढ़ता जा रहा था। सप्तमी और अंश को अपनी बाहों में लेकर सौरभ लेटा हुआ था। अंश को बुखार आ गया था। उसका शरीर तप रहा था। सप्तमी अपने पर्स में सदैव दवा रखती ...Read More

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राम रचि राखा - 4 - 1

राम रचि राखा मरना मत, मेरे प्यार ! (1) "जो मन में आए करो...मरो तुम!" झल्लाते हुए प्रिया ने को झन्न से क्रेडिल पर रखा और मेरी तरफ मुड़ी। मैं बेडरूम से सटे स्टडी रूम में कुछ लिख रहा था। कल जब से प्रिया की माँ का फ़ोन आया था तब से ही यह तनाव चल रहा था। मैं ...Read More

21

राम रचि राखा - 4 - 2

राम रचि राखा मरना मत, मेरे प्यार ! (2) अच्छा हो या बुरा, समय तो बीतता ही रहता है। ही देखते तीन साल बीत गए। जैसे-जैसे समय समय बीतता गया मेरे और प्रिया के संबंधों की मिठास कड़वाहट में बदलती गई। एक तरफ जहाँ प्रिया को समझ पाना मेरे लिए दिनों दिन और मुश्किल होता जा रहा था वहीं प्रिया के लिए मेरा व्यवहार उत्तरोत्तर असहनीय होता जा रहा था। पहले तो सुबह-शाम ताने दिया करती थी। बाद में चुप्पी साध ली। जो कि मुझे बहुत खलती थी। उस दिन जब सुबह उठा तब प्रिया और वर्तिका दोनों सो रही थीं, जो कि ...Read More

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राम रचि राखा - 4 - 3

राम रचि राखा मरना मत, मेरे प्यार ! (3) लगभग छः बजने वाला था जब अविनाश का फ़ोन आया। ऑफिस में था। प्रिया को गए लगभग दो सप्ताह हो चुके थे। "कहाँ हैं जीजा जी… ऑफिस में?" "हाँ ऑफिस में ही हूँ...और बताओ सब ठीक ?" "हाँ बिलकुल ठीक है...बस आपके शहर में आया था तो सोचा कि आपके दर्शन भी करता चलूँ। " "अरे...! कब आए ?" "आया तो दोपहर में ही था। पी डब्लू डी की ऑफिस में कुछ काम था। अभी फ्री हुआ। आपको ऑफिस से निकलने में अभी कितना समय लगेगा?" "तुम ऐसा करो, फ्लैट पर पहुँचो। मैं ऑफिस से निकलता ...Read More

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राम रचि राखा - 5 - 1

राम रचि राखा मुझे याद करोगे ? (1) "आनंद, आओ दूध पी लो” रुचि ने बाल्कनी से जोर से लगाई। शाम के लगभग सात बजने वाले थे। सूर्य डूब चुका था। पश्चिमी क्षितिज पर लालिमा बिखरी हुई थी। बाहर अभी उजाला था। चारो तरफ बने मकानो के बीच छोटे से पार्क में बच्चे खेल रहे थे। उनमें आनंद भी था। "अभी आता हूँ...।“ आनंद ने रुचि की ओर देखे बिना ही उत्तर दिया और खेलना जारी रखा। "जल्दी आ जाओ...।“ कहकर रुचि अंदर चली गई। रूचि के बुलावे से आनंद समझ चुका था कि उसके खेल का समय अब समाप्त ...Read More

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राम रचि राखा - 5 - 2

राम रचि राखा मुझे याद करोगे ? (2) रुचि की जब बारहवीं की परीक्षाएँ समाप्त हुई तो दीदी के चली आई। आने के पहले बहुत उत्साहित थी, किन्तु इस छोटे से कस्बे में आकर उसका सारा उत्साह जल्दी ही समाप्त हो गया। वह बड़े शहर में पली-बढ़ी थी। पिताजी अच्छे-खासे रईस थे। वहाँ उनका काफी बड़ा बंगला था। यहाँ न तो कहीं घूमने फिरने लायक है और न ही उसकी सहेलियाँ हैं। कस्बे में कुल मिलाकर एक सिनेमाघर था जिसकी कुर्सियों पर तीन घन्टे बैठना भी अपने आप में एक कसरत थी। सारा दिन तीन कमरों के इस छोटे से ...Read More

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राम रचि राखा - 5 - 3

राम रचि राखा मुझे याद करोगे ? (3) देखते-देखते एक सप्ताह बीत गया। अब आनंद के एक विषय की और बाकी है। कल उसकी परीक्षा खत्म हो जायेगी। दो-तीन दिन बाद उसके पिता जी उसे गाँव लिवा ले जाएँगे। इतने दिनो में आनंद कभी भी अपने घर वालों को याद करके उदास नहीं हुआ था। लेकिन आज जब रुचि ने पूछा कि "मम्मी की याद आ रही है?" तो अनायस ही उसकी आँखें भर आई थीं। रात में सोते समय रुचि सोचने लगी कि तीन दिन बाद आनंद चला जायेगा। सब कुछ खाली-खाली सा हो जाएगा। बहुत देर तक उसे ...Read More

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राम रचि राखा - 6 - 1

राम रचि राखा (1) तुम यहाँ बैठकर लील रहे हो…! उधर बछड़ा पगहा छुड़ाकर गाय का सारा दूध गया...। आँगन का दरवाजा भड़ाक से खुला और भैया की कर्कश आवाज़ पिघले शीशे की तरह मुन्नर के कानों में उतर गयी। हाथ का कौर थाली में ही ठिठक गया। खेत से लौटे थे भैया, फरसा अभी भी हाथ में ही था। खड़ी दोपहर थी। सूर्यदेव अंगार बरसा रहे थे। आँगन के पूर्वी तरफ थोड़ी सी छाया, जो बुढ़वा नीम की डालियों के आँगन में झुक जाने के कारण थी, वहीं बैठ कर मुन्नर भोजन कर रहे थे। अचानक भैया की ...Read More

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राम रचि राखा - 6 - 2

राम रचि राखा (2) उस दिन जब मुन्नर दिशा फराकत से लौटे, भैया कुएँ पर नहा रहे थे। जल्दी था। एक रिश्तेदारी में किसी का देहांत हो चुका था। सोच रहे थे जल्दी निकल लूँ। बीस कोस साईकिल चलाकर जाना है। दोपहर होने से पहले पहुँच जाऊँ। आजकल दोपहर में चल पाना मुश्किल हो रहा था। "मैं जा रहा हूँ नेवादा…हीरा से बात कर ली है…चले जाना थ्रेसर पर। दोपहर से पहले वे हमारा गेहूँ लगा देंगे।" भैया देह पोंछते हुए मुन्नर से कह रहे थे। मुन्नर, भैया के किसी भी बात का जवाब नहीं देते हैं। न हाँ ...Read More

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राम रचि राखा - 6 - 3

राम रचि राखा (3) "मैंने तो तुम्हें दोपहर में ही बुलाया था। समय से आ गए होते तो अब गेहूँ कट भी गया होता। यह नौबत ही नहीं आती...।" हीरा ने अपने ऊपर आने वाली किसी भी किस्म के लांछन को परे धकेलते हुए कहा। फिर सांत्वना देते हुए बोले - "लेकिन जो होना होता है, हो ही जाता है... होनी को कौन टाल सकता है।" मुन्नर एकटक जली हुयी गाँठों को देख रहे थे। उसके राख की कालिमा उनके अन्दर उतरने लगी थी। जैसे साँझ का अँधेरा सूरज की कमजोर पड़ रही किरणों को निगलते हुए हुए धरती ...Read More

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राम रचि राखा - 6 - 4

राम रचि राखा (4) सवेरे जब मुन्नर द्वार पर नहीं दिखे तो पहले माई ने सोचा कि दिशा-फराकत के गए होंगे। परन्तु जब सूरज ऊपर चढ़ने लगा फिर भी मुन्नर लौट कर नहीं आये तो माई को चिंता होने लगी। वे मैदान की तरफ से आने वाले लोगों से पूछने लगीं कि किसी ने मुन्नर को देखा है। किन्तु सभी ने अनभिज्ञता प्रकट की। अब माई का मन डूबने लगा। मन में शंका- कुशंका का ज्वार उठने लगा- कहीं घर छोड़कर चले तो नहीं गया? लेकिन जायेगा कहाँ? कहीं कुछ कर तो नहीं लिया? माई का मुँह कलेजे को ...Read More

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राम रचि राखा - 6 - 5

राम रचि राखा (5) पंद्रह दिनों बाद जब मुन्नर जेल से छूटे तो उनकी हालत किसी मानसिक रोगी जैसी मन में अनिश्चितता ने घर कर लिया था। कुछ भी निर्णय कर पाने की शक्ति खो चुके थे। कहाँ जाऊँ ? क्या करुँ ? कुछ भी नहीं तय कर पा रहे थे। पैदल चलकर स्टेशन तक पहुँचे और प्लेटफोर्म की एक बेंच पर बैठ गए। आने जाने वाली गाड़ियों को निर्विकार रूप से देखने लगे। बदन पर वही पंद्रह दिन पुरानी लुंगी और कुर्ता था, जो बहुत ही मैला हो चुका था। गाड़ियों के आवागमन की उद्घोषणा और लोगों का ...Read More

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राम रचि राखा - 6 - 6

राम रचि राखा (6) अभी शाम होने में लगभग घंटा-डेढ़ घंटा बाकी था। परन्तु दोपहर की बरसात ने मौसम कर दिया था। हवा में थोड़ी शीतलता आ गयी थी। बब्बन पांडे, सिराहू सिंह और राम आधार पांडे के अलावा गाँव के दो-एक और माननीय लोग संकठा सिंह के द्वार पर नीम के पेड ...Read More

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राम रचि राखा - 6 - 7

राम रचि राखा (7) लगभग एक सप्ताह गुजर चुका था उन्हें इस गाँव में आये। एक दिन संकठा सिंह के गाँव से किसी पंचायत का फैसला करके अपनी साईकिल पर लौट रहे थे। दोपहर के बारह बज रहे होगें। लू और बवंडर उठ रहा था। अपने चेहरे को पूरी तरह गमझे से ढँके हुए थे, फिर भी चेहरे पर ताप लग रही थी। आँखे तक जलने लगीं थी। देखा कि मुन्नर पारिजात के नीचे चबूतरे पर लेटे हुए थे। संकठा सिंह थोड़ी दूर, पगडण्डी से गुजर रहे थे फिर भी इतना वे देख पा रहे थे कि मुन्नर चेहरे ...Read More

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राम रचि राखा - 6 - 8

राम रचि राखा (8) बाबा के रूप में मुन्नर कुटी पर स्थापित हो चुके थे और उनके चमत्कारों के किस्से कभी-कभी प्रकाश में आने लगे थे-- कभी एक ही क्लास में दो साल से फेल हो रहा मँगरू पास हो जाता। कभी पंद्रह दिन से बीमार चल रहे रामजनम के बेटे का बुखार बाबा के स्पर्श मात्र से ही उतर जाता। कभी परवतिया का भूत बाबा के सामने आने से ही भाग खड़ा होता। कभी जीतन की भैस, जो दो बार से पड़वा जन रही थी, इस बार पड़िया को जन्म दे देती। कभी गाँव में डकैती डालने की ...Read More

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राम रचि राखा - 6 - 9

राम रचि राखा (9) समय पंख लगाकर उड़ जाता है। पाँच साल से ज्यादा हो चुके हैं मुन्नर को गाँव मे आये हुए। लेकिन आज भी जब वह दिन याद आता है तो आँखों के सामने सारे दृश्य सजीव उठते हैं। अपने गाँव में बीता अंतिम दिन, जेल की यातनाएँ और इस गाँव में, लू के थपेडों के बीच खुले आसमान के नीचे बिताये गए शुरूआती दिन। एक गहरी उच्छ्वास लेते मुन्नर - "जिंदगी भी क्या-क्या करवट बदलती है।" सुबह-शाम तो कुटी पर लोगों की आवाजाही रहती है, परन्तु दोपहर में प्रायः एकांत होता है। बस ललिता पंडित का ...Read More

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राम रचि राखा - 6 - 10 - अंतिम भाग

राम रचि राखा (10) मुन्नर को खिलाने के बाद रात का खाना खाकर भोला घर चला गया था। बिजली को ही कट गयी थी। आजकल दिन की पारी चल रही है। मुन्नर ने लालटेन जलायी और ओसार में आ गए। उनके हाथ में एक खुरपी थी। एक कोने से दरी को हटाया और लालटेन जमीन पर रखकर वहाँ खोदना शुरू किया। दस-पंद्रह मिनट में घड़े का मुँह आ गया, जिसे मुन्नर ने दबा रखा था। हाथ डालकर जो भी रूपया पैसा था, सब बाहर निकाल लिए और घड़े का मुँह बंद कर पुनः उसे मिट्टी से ढँक कर ऊपर ...Read More