देखना फिर मिलेंगे

(18)
  • 28.6k
  • 2
  • 7.8k

पिछले स्टॉप से बस छूटी तो सर पर चढ़ी धूप ठंडी हो चली थी। खिड़की से अब ठंडी हवा आने लगी थी। दिन भर की गर्मी और उमस ने दिमाग में शार्ट सर्किट किया हुआ था। छुट्टन उर्फ छज्जन लाल कभी मौसम को कोसता तो कभी अपने फैसले को जिसने नॉन ऐसी बस में सफर करने का निर्णय लिया था। पैर मुड़े मुड़े उकड़ू हो चले थे पर फैला नहीं सकते थे ना ही इतनी जगह की पालथी मार कर बैठ सकते थे। काहे की साथ में एक मोहतरमा बैठी थकी और तमीज तो उसमे कूट कूट कर भरी हुई

Full Novel

1

देखना फिर मिलेंगे - 1 - वह पहली मुलाकात

पिछले स्टॉप से बस छूटी तो सर पर चढ़ी धूप ठंडी हो चली थी। खिड़की से अब ठंडी हवा लगी थी। दिन भर की गर्मी और उमस ने दिमाग में शार्ट सर्किट किया हुआ था। छुट्टन उर्फ छज्जन लाल कभी मौसम को कोसता तो कभी अपने फैसले को जिसने नॉन ऐसी बस में सफर करने का निर्णय लिया था। पैर मुड़े मुड़े उकड़ू हो चले थे पर फैला नहीं सकते थे ना ही इतनी जगह की पालथी मार कर बैठ सकते थे। काहे की साथ में एक मोहतरमा बैठी थकी और तमीज तो उसमे कूट कूट कर भरी हुई ...Read More

2

देखना फिर मिलेंगे - 2 - यादो का कारवाँ

छुट्टन किताब लेकर सीट पर अभी बैठा ही था कि बस वाले लोग चांय चांय करने लगे, सराय आ था। सबको उतरने की होड़ लगी हुई थी। साफ साफ दिख रहा था वह कोई सितारों वाला होटल नहीं बल्कि चार कमरों का यात्री धर्मशाला था और पास में ही एक मंदिर नजर आ रहा था। छोटी सी चाय की दुकान जिसने हमारी आपदा को अवसर बना कर फटाफट चूल्हा सुलगा लिया था। सारे यात्री अलग अलग कमरों में हो लिए। छुट्टन ने सोचा अब खाट पर लेट कर थोड़ा किताब पढ़ी जाए पर वही चांय चांय फिर शुरू हुई कि ...Read More

3

देखना फिर मिलेंगे - 3 - कोई मिल गया

रंगीली के संग संग चले गए उसके जीवन के बचे खुचे रंग। अब नहीं लिखता था, लिखे भी तो लिए? कौन पढ़ेगा? शाम होते होते उसे रंगीली की यादें सताने लगती थी। अंधेरे से आवाज चीरते हुए आती थी " ए छुट्टन बड़े निराशावादी हो बे "" हाँ है हम निराशावादी! पर पलायनवादी तो नहीं "छुट्टन जोर से चीख पड़ा। विचारो के आसमान से यथार्थ के धरातल पर पटकी हुई आवाज बाकी सोये हुए लोगों के नींद को खराब कर गई।छुट्टन दौड़ कर बाहर निकल आया था। दम घुट रहा था उसका वहाँ।यह रात तो सुरसा जैसे बड़ी होते ...Read More

4

देखना फिर मिलेंगे - 4 - मिले हो तुम नसीबों से

बस कंडक्टर की आवाज पर तन्द्रा टूटी तो सारे वापस अपनी अपनी सीट पकड़ने को आतुर दिखे। रात अभी थी। जाने हर रात उकता देने वाली रात आज छुट्टन को भा रही थी। लग रहा था जैसे सीने पर रखा कोई पत्थर हल्का हो चला है। पर उसकी किस्मत को उससे दुश्मनी ही थी जो बस जल्दी रिपेयर हो कर आ गई। छुट्टन अपनी सीट पर बैठा तो सारी झुंझलाहट जा चुकी थी। अब ना तो उसे पैर फैलाने को जगह कम लग रही थी और ना सफर उबाऊं। खिड़की से आती हल्की हवा ने पलकों को भारी कर दिया ...Read More