स्वप्न हो गये बचपन के दिन... (१)"मेला नाम 'आदनबादन ओदा' है !"....यह कथा मेरी स्मृति का हिस्सा कभी नहीं रही। शायद तब की कथा है, जब मैं पूरी तरह होशगर नहीं हुआ था। लेकिन, कथा पिताजी (पुण्यश्लोक पं. प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त') से बार-बार सुनी है। हाँ, इतना मेरी धुँधली-सी स्मृति में अवश्य है कि बहुत छुटपन में, कई वर्षों तक मैं तुतलाकर बोलता था और अगर कोई मुझसे मेरा नाम पूछता, तो मैं झट कहता--"मेला नाम 'आदनबादन ओदा' है।" मेरे ऐसे उच्चारण को सुनने के लिए लोग मुझसे बार-बार मेरा नाम पूछते भी थे।मेरे तुतलाकर बोलने के परदे के पीछे
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स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (1)
स्वप्न हो गये बचपन के दिन... (१)"मेला नाम 'आदनबादन ओदा' है !"....यह कथा मेरी स्मृति का हिस्सा कभी नहीं शायद तब की कथा है, जब मैं पूरी तरह होशगर नहीं हुआ था। लेकिन, कथा पिताजी (पुण्यश्लोक पं. प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त') से बार-बार सुनी है। हाँ, इतना मेरी धुँधली-सी स्मृति में अवश्य है कि बहुत छुटपन में, कई वर्षों तक मैं तुतलाकर बोलता था और अगर कोई मुझसे मेरा नाम पूछता, तो मैं झट कहता--"मेला नाम 'आदनबादन ओदा' है।" मेरे ऐसे उच्चारण को सुनने के लिए लोग मुझसे बार-बार मेरा नाम पूछते भी थे।मेरे तुतलाकर बोलने के परदे के पीछे ...Read More
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (2)
स्वप्न हो गये बचपन के दिन... (2)माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेसी...? (क )बात बहुत पुरानी तब की, जब आलोक-भरे इस संसार को देखने के लिए मैंने आँखें भी नहीं खोली थीं, उसके भी कई-कई बरस पहले की। यह कहानी मैंने पिताजी से सुनी थी जो मेरी स्मृति में कहीं चिपक कर रह गयी है। आप सुनेंगे? कहूँ कहानी, वही पुरानी... ?मैंने अपनी पितामही (रामदासी देवी) को बाल्यकाल में देखा था, तब वह ८०-८५ के बीच की रही होंगी। वृद्धावस्था की उस उम्र में भी वह बहुत सुन्दर दिखती थीं, जबकि रुग्ण और शय्याशायी थीं! अत्यंत ...Read More
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (3)
स्वप्न हो गये बचपन के दिन... (3)माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेसी...(ख) : कानों सुनी, आँखों बड़ी बुआजी (कमला चौबे) पिताजी से दो वर्ष बड़ी थीं। उनका विवाह शाहाबाद जिले के एक समृद्ध गाँव 'शाहपुरपट्टी' में हुआ था। पटना-बक्सर मुख्य मार्ग पर बसा यह गाँव अपेक्षाकृत अधिक उन्नत ग्राम था। बड़े फूफाजी (देवराज चौबे) ए.जी. ऑफिस, बिहार में आंकेक्षक के पद पर बहाल थे। गाँव में फूफाजी का बड़ा मान-सम्मान था, खेती-बारी थी, धन-धान्य--सब था। उनकी एक ही कन्या संतान थी, जो अल्पायु रही। उन्हें विचित्र हृदय रोग था। पाँच-छह कदम की दूरी पर खड़ा व्यक्ति ...Read More
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (4)
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (4)हित-अनहित चीन्हे नहिं कोय...'बिजली' और 'आरती' का ज़माना बीत गया था। १९४८ पिताजी आकाशवाणी, पटना से 'हिंदी-सलाहकार' के रूप में जुड़ गए थे। चार वर्ष बाद दुनिया में उधम मचाने के लिए मैं भी आ धमका, लेकिन उधम मचाने की योग्यता पांच-छः वर्ष बाद मुझे प्राप्त हुई थी। मुझे ठीक-ठीक स्मरण है, जब मैं सात-आठ साल का बालक था, रामचन्दर फोरमैन नामक एक व्यक्ति, मेरी ननिहाल के विशाल प्रांगण में, पुष्प-वाटिका के छोटे-छोटे वृक्षों के नीचे बने प्रस्तर-प्रखंड पर आकर चुक्के-मुक्के बैठ जाते! उनके नयन-कोरों पर कीच होती, शरीर पर जर्जर कुरता ...Read More
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (5)
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (5)सच्ची सम्मति की पीड़ा... भारत-चीन युद्ध के बाद, १९६३-६४ की बात है। की घंटी बज उठी। गाँधी-गंजी और खादी का हाफ-पैंटनुमा जाँघिया पहने पिताजी उठ खड़े हुए। उनका कहना था, 'घर के हर व्यक्ति को इस बात का ख़याल रखना चाहिए कि दरवाज़े पर किसी भी आगंतुक को द्वार खुलने की लम्बी प्रतीक्षा न करनी पड़े।' वह हमेशा ऐसा ही करते थे, जिस दशा में होते, उसी में चल पड़ते दरवाज़ा खोलने। उस दिन भी वह द्वार खोलने को तत्पर हुए ही थे कि मैं यह कहता हुआ उनसे आगे बढ़ गया--'ठहरिए, मैं ...Read More
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (6)
बीत गये बचपन के दिन भी (6)पत्रहीन आम्र-वृक्ष का रुदन...गाँव के किशोरों-युवाओं में एक खेल आज भी बहुत प्रिय ! ५०-५५ वर्ष पहले यह खेल शहरों में भी खूब खेला जाता था, क्योंकि तब शहरों में भी बगीचे और वृक्ष हुआ करते थे। आज के प्रायः तमाम शहर वृक्ष-विहीन हो गए हैं। वृक्षों की जगह नन्हे पौधों ने ले ली है और वे क्यारियों या गमलों में आ बसे हैं! मुश्किल ये है कि 'डोलापाती' का खेल वृक्षों पर ही खेला जा सकता है, पौधों पर नहीं।मैं जिस ज़माने की बात कह रहा हूँ, उस ज़माने में, यानी मेरे ...Read More
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (7)
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (7) 'तानसेन गवइया की अठन्नी-अदायगी'... लेखक और कवि-मित्रों के बीच, प्रसंगवश, पिताजी कहा करते थे--'हमारे देश में लिखनेवालों की कमी नहीं है, बहुत लोग लिखते हैं, उनमें अनेक बहुत अच्छा भी लिखते हैं, लेकिन अधिसंख्य यह नहीं जानते कि क्या नहीं लिखना चाहिए...!' ... सोचता हूँ, मैं जो लिखना चाहता हूँ, उसे लिखना चाहिए या नहीं? इसी उधेड़बुन में लिखूँगा--यह कथा।सन् १९६२ में जब मेरा नामांकन पटना के मिलर हाई स्कूल की पांचवीं कक्षा में हुआ, तब भारत-चीन का युद्ध चल रहा था। श्रीकृष्ण नगर में, मेरे घर के आसपास 'डब्ल्यू' आकार में कई ...Read More
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (8)
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (8)'जब भालूजी भये हनुमान...' जो लोग बच्चों को नादान समझते हैं, वे नादान हैं। चंट बच्चा नादान नहीं होता, वह अपनी उम्र से अधिक कल्पनाशील, उद्यमी और कारसाज़ होता है। हमीं हैं, जो गफलत में रहते हैं और उसकी उड़ान को पहचान नहीं पाते। यह महज़ एक कथन नहीं है, इस बात का पुष्ट प्रमाण मेरे तरकश में है। एक वाकया सुनाता हूँ। लेकिन इसे छोटे बच्चों को मत सुनाइयेगा, अन्यथा वे इसकी प्रामाणिकता सिद्ध करने के प्रयोग में जुट जाएँगे।बात पुरानी है--सन् १९६०-६१ के आसपास की। तब बड़ा उद्धमी था मैं ! ...Read More
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (9)
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (9)'कील गुर्रों' उर्फ़ काठ का घोड़ा... मेरे घर के सामने ही उनका था--भिन्न-मुखी ! मेरा घर पश्चिमाभिमुखी तो उनका उत्तराभिमुखी ! १२ वर्ष का चंचल बालक मैं, क्षण-भर में २० फ़ीट की सड़क लाँघकर उनके घर पहुँच जाता था। उस घर में निवास करती थीं दक्षिण-भारतीय एक सुघड़ ब्राह्मणी! ३५-३६ की उम्र रही होगी, दुबली पतली थीं, नासिका में अपेक्षाकृत बड़ा-सा सोने का आभूषण पहने रहती थीं--सामान्य रूप-स्वरूप की हँसमुख महिला! तेलुगुभाषिणी थीं, लेकिन वर्षों उत्तर भारत में व्यतीत करते हुए साफ़-सुथरी हिंदी भी धाराप्रवाह बोलनेलगी थीं। आज इतनी मुद्दत बाद उनका स्मरण ...Read More
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (10)
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (10) वह सम्मोहिनी बेबी ऑस्टिन--बी.आर.ए.-85 ...पटना में रहते हुए पिताजी का आवासीय रह-रहकर बदल जाता था। वह ज़माना भी ऐसा न था कि एक एस.एम.एस. लिखकर तमाम दोस्तों को बता दिया जाता अपना बदला हुआ ठिकाना! पिताजी के मित्र-बन्धु इतने उदार और हितू थे कि खोज-ढूँढ़कर उनके पास पहुँच ही जाते और उलाहना देते--"क्या पता था, हम ढूँढ़ते रह जाएँगे, और तुम मिलोगे इक बदले हुए ठिकाने पर!" कई बार तो एक साल में तीन-चार ठिकाने। मुक्त-मन के यायावर प्राणी थे पिताजी भी। मन जहाँ नहीं रमा, चिल्ल-पों हुई, शोर-शराबा मिला, पिताजी ने ...Read More
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (11)
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (11)'कटहल से कुश्ती...'झारखण्ड का राँची प्रक्षेत्र अपनी वन्य सम्पदा और प्राकृतिक सौन्दर्य कारण आकर्षण का केंद्र रहा है। आज की स्थिति का तो पता नहीं, लेकिन जिस ज़माने की कह रहा हूँ, उस ज़माने में यह सम्पदा सड़क-किनारे ही बिखरी पड़ी दीखती थी। तब छोटा ही तो था--१९६५-६६ में, सातवीं-आठवीं का छात्र!राँची जिले के एक जनपद 'खूँटी' में, माँ और छोटे भाई-बहन के साथ, रहता था। विद्यालय के लिए रोज़ दो-ढाई किलोमीटर की पद-यात्रा करता था। उन दिनों खूँटी बड़ा रमणीय स्थान था। पर्याप्त वन-सम्पदा सर्वत्र सहज सुलभ थी। पुष्ट जामुन-केले-बेर बहुत ...Read More
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (12)
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (12)'जब देश-निकाला दिया वन-देश से....' मैं मानता हूँ, मैं अच्छा विद्यार्थी कभी रहा। एकमात्र विषय हिन्दी को छोड़कर किसी भी विषय से मेरी पटरी बैठती ही नहीं थी। रसायन के रस-सूत्र मुझे नीरस लगते थे, पदार्थ के अर्थ दुरूह और गणित तो मेरे माथे की टिक (शिखा) ही थाम लेता था। बस, हिन्दी में ही पूरी कक्षा में मुझे सर्वाधिक अंक प्राप्त होते थे। आठवीं कक्षा तक पहुँचते-पहुँचते मैंने इब्ने सफी बी.ए. की पूरी जासूसी शृंखला पढ़ डाली थी, फिर उम्र रूमानी डगर पर ले चली और मैं प्रेम वाजपेयी और कुशवाहा कान्त ...Read More
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (13)
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (13)'वह गहरी नीली फोम की जर्सी...' मेरे ख़यालों के बियाबान में गहरे रंग की फ़ोम की एक जर्सी अपनी बाँहें फैलाये उड़ती रहती है लगातार। वह कभी बारिश में भीगती है, कभी ठण्ड में ठिठुरती है और कभी गर्म हवाओं में झुलसती किसी काँटेदार वृक्ष में उलझी फहराती रहती है--हाहाकार मचाती हुई, मुझे पुकारती हुई और मैं अनासक्त भाव से मुँह फेरे रहता हूँ। अब तो उससे विरक्त हुए प्रायः आधी सदी बीतने को है, वह फिर भी मेरा पीछा नहीं छोड़ती ! सोचता हूँ, यह कैसी विरक्ति है, कैसा विराग है, जो ...Read More
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (14)
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (14)[फिर, स्वप्न हुए बचपन के दिन भी... अध्ययन पूरा हुआ... जीवन युवावस्था सपनीली ज़मीन पर आ गया और कथा शेष रही--आनन्द.]'दोनों के बीच मैं ही फाड़ा जाऊँगा...' हम एक ही वर्ष में, लेकिन दो अलग-अलग शहरों, परिवारों और परिवेश में जन्मे थे। हमारा पालन-पोषण और पठन-पाठन भी भिन्न शहरों में हुआ था। युवावस्था की दहलीज़ पर पाँव रखते ही संयोगवश हम मिले, मित्र बने और हमारी गहरी छनने लगी। मित्रता घनिष्ठ से घनिष्ठतर होती गयी। लेकिन हमारी रुचियाँ भिन्न थीं। हम अलग पथ के पथिक थे। न बोध-विचार का साम्य था, न प्रकृति ...Read More
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (15)
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (15)'मैंने छुट्टी उसे नहीं दी थी...'उत्साह-उमंग और जीवन से भरा था वह जवान ! मेरी ही कंपनी में ट्रक का खलासी था--वह गढ़वाली रामसिंह! गेहुआं रंग, लम्बी-छरहरी काया, लम्बी बाहें--घुटने तक झूलती हुई; आँखें छोटी और नासिक थोड़ी चिपटी। चलता तो लगता, दौड़ रहा है। कुछ बोलता, तो उसकी बात समझने में वक़्त लगता। वैसे वह बोलता ही कम था। उसे हमेशा छुट्टी की पड़ी रहती। न जाने वह कौन-सा पहाड़ी प्रदेश था, जहाँ उसके वृद्ध माता-पिता रहते थे। और, वह उन्हीं के पास जाने के लिए मचलता रहता था। वह तभी ...Read More
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (16)
पर्वतीय प्रदेश में ठहरी साँसों का हसीन सफर... (क) तब हिन्दुजा बंधुओं की सेवा में था। सन १९७९ के में राजकमल प्रकाशन, दिल्ली के सम्पादकीय विभाग की नौकरी छोड़कर मैं ज्वालापुर (हरद्वार) में अशोका प्लाईवुड ट्रेडिंग कंपनी में एडमिनिस्ट्रेटर के पद पर बहाल हुआ था। पांच-छह महीने ही हुए थे कि मुंबई के प्रधान कार्यालय से मुझे एक हरकुलियन टास्क मिला। और वह आदेश भी श्रीचंद पी. हिंदुजाजी का था, जिसकी अवमानना नहीं की जा सकती थी।बात दरअसल यह थी कि इंग्लैंड में हिंदुजाजी का एक गढ़वाली पाकशास्त्री था। वह कई वर्षों से विदेश में, उन्हीं की सेवा में, तत्पर ...Read More
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (17)
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (17)पर्वतीय प्रदेश में ठहरी साँसों का हसीन सफ़र (ख) शाम ढलान पर और मैं भी अंतिम पहाड़ की ढलान पर। दूर, पहाड़ के नीचे समतल मैदान में बसा गाँव माचिस की डिब्बियों का ज़खीरा-सा दीख रहा था मुझे। मैं उत्साह से आगे बढ़ा। ढलान पर उतरते हुए गति अनचाहे बढ़ गयी थी। जल्दी ही मैं बागोड़गाँव की सीमा-रेखा पर पहुँच गया। गाँव में प्रवेश करते ही सुन्दर पहाड़ी बालाओं का एक दल हाथो में लोटा-बाल्टी लिए जाता दिखा। मैं लपककर उनके सामने जा पहुँचा और जिस घर में मुझे जाना था, उसका पता-ठिकाना ...Read More
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (18)
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (18)'परदों के पीछे का सफर...'सफ़र लंबा था, तकरीबन ३०-३१ घण्टों का। शाम बजे पूना से ट्रेन से मैंने प्रस्थान किया था। वातानुकूलित द्वितीय श्रेणी के डब्बे में किनारे की निचली बर्थ थी मेरी। मेरे सिर पर जो बर्थ थी, उसपर पूना से ही आये थे सत्तर वर्षीय एक वृद्ध दक्षिण भारतीय सज्जन। वह तमिलभाषी थे, लेकिन लगभग आधी सदी उन्होंने पूना में व्यतीत की थी और इसीसे टूटी-फूटी हिंदी बोल-समझ लेते थे। रात के भोजन के बाद लगभग ९ बजे वह अपनी बर्थ पर चले गए। तबतक जितनी बातें हो सकती थीं, ...Read More
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (19)
स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (19)'शब्द-सहयोग की अनवरत कथा...'पूज्य पिताजी को दिन-रात लिखते-पढ़ते देखकर मैं बड़ा हुआ। में आता था कि उन्हीं की तरह कवि-लेखक बनूंगा। बाल्यकाल में इतना खिलंदड़ था कि लिखने-पढ़ने की राह पर पाँव धरता ही नहीं था। पिताजी पढ़ने-सिखाने को बुलाते तो जाना तो पड़ता, लेकिन थोड़ी ही देर में मेरे पूरे शरीर पर लाल चींटियाँ रेंगने लगतीं। पिताजी मेरी ऐंठन देखते तो मुझे मुक्ति दे देते। मैं बड़ी प्रसन्नता से भाग खड़ा होता। लेकिन किशोरावस्था तक आते-आते वृत्तियों ने राह बदली। जब आठवीं कक्षा में था, विद्यालय पत्रिका के लिए पहली छंदोबद्ध ...Read More