(1)यदि कल्पना या सुनी सुनाई बातों का सहारा न लेना हो तो मुझे केवल पैंसठ साल पहले की बात ही याद है। अपने देखे हुए से दृश्य लगते हैं पर धुंधले।धूप थी, रस्सी की बुनी चारपाई थी, खपरैल से ढके कच्चे बरामदे से सटा छोटा सा आंगन था। चारपाई पर एक हिस्से में बिछी पतली सी दरी, और पास ही नम, गुनगुना सा पड़ा एक तौलिया। खाट पर खुला पड़ा एक पाउडर का डिब्बा। और मुझे नहला कर बाहर धूप में लेटा कर तैयार करते दो चपल से हाथ।शिशु शरीर पर पाउडर लगाने के बाद एक पतली सी अंगुली भी
Full Novel
इज़्तिरार
(1)यदि कल्पना या सुनी सुनाई बातों का सहारा न लेना हो तो मुझे केवल पैंसठ साल पहले की बात याद है। अपने देखे हुए से दृश्य लगते हैं पर धुंधले।धूप थी, रस्सी की बुनी चारपाई थी, खपरैल से ढके कच्चे बरामदे से सटा छोटा सा आंगन था। चारपाई पर एक हिस्से में बिछी पतली सी दरी, और पास ही नम, गुनगुना सा पड़ा एक तौलिया। खाट पर खुला पड़ा एक पाउडर का डिब्बा। और मुझे नहला कर बाहर धूप में लेटा कर तैयार करते दो चपल से हाथ।शिशु शरीर पर पाउडर लगाने के बाद एक पतली सी अंगुली भी ...Read More
इज्तिरार - 2
7)इस बार की अखिल भारतीय चित्रकला प्रतियोगिता में देश भर से आए विद्यार्थियों को विज्ञानभवन में आयोजित ऑन द पेंटिंग में भाग लेना था। लगभग हर राज्य से ही बच्चे आए थे।चित्र बनाने के लिए विषय दिया गया कि कल आपको दिल्ली शहर की जो सैर करवाई गई थी, उसमें देखे किसी भी स्थान का कोई भी चित्र बनाया जा सकता है।सभी आनंदित हो गए। एक दिन पहले हमें बस से राष्ट्रपति भवन, प्रधानमंत्री आवास, क़ुतुब मीनार, लालकिला और इंडिया गेट दिखा कर लाया गया था।राष्ट्रपति भवन और प्रधान मंत्री भवन में हम छात्रों को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली ...Read More
इज़्तिरार - 3
(13)जब घर से बाहर निकलता तो गर्मी हो, सर्दी हो, या बरसात हो, एक ताज़ा हवा आती थी।अब मैं बंधन में नहीं था। न सपनों के, न उम्मीदों के, और न ही निर्देशों के !अब मेरे ऊपर किसी की कोई जवाबदेही नहीं थी। मैं होरी और गोबर की तरह खेतों में भी विचर सकता था, चन्दर की तरह विश्व विद्यालय के अहाते में भी। काली आंधी मेरे आगामी अतीत के मौसम को खुशगवार बनाती थी। मुझे सूरजमुखी अंधेरे के भी दिखते थे। ज़िन्दगी को कोई रसीदी टिकिट देने की पाबंदी नहीं थी। मधुशाला भी दूर नहीं थी। कोई शेषप्रश्न ...Read More
इज्तिरार - 4 (अंतिम भाग)
( 19 ) अंतिम भागकाम करते हुए एक महीना कब निकल गया ये पता ही नहीं चला। पता चला जब पहला वेतन मिला। ज़िन्दगी की पहली नियमित कमाई। संयोग से दो दिन बाद ही रविवार था। मैं वेतन के नए नोट जेब में भर कर शनिवार की शाम को कोटा के लिए निकल गया। नाव में जाते हुए मुझे बीते दिन याद आते रहे, और सबसे ज़्यादा शिद्दत से याद आया वो दौर जब मैं स्कूल में पढ़ा करता था और एक दोपहर मेरा छोटा भाई अपने तीन चार दोस्तों के साथ तीन किलोमीटर से सायकिल चलाता हुआ मेरे ...Read More