अगिन असनान (1) भांडी-बासन में फूल-पत्ती आंक कर उसने हमेशा की तरह दालान में करीने से सजा दिया। भर दोपहर की तांबई पड़ती धूप में ताजा उतरे मटके, गमले पांत की पांत जगमगा उठे। जोगी आ कर देखेगा तो दीदे तर हो जाएँगे। दोस्त-दुश्मन सब कहते हैं, सोने पर सुहागा है सगुन की फूलकारी, जोगी के हुनर पर चाँद-तारों के गोटे जड़ देती है... आज की यह जुगलबंदी नहीं। लगभग दो जुग गुज़र गए! लगन कर इस देहरी पर दो आलता रंगे पाँव सकुचाते हुये धरे तब कितने की थी वह!... मक्की के दानों में दूध भी ना पड़े थे!
Full Novel
अगिन असनान - 1
अगिन असनान (1) भांडी-बासन में फूल-पत्ती आंक कर उसने हमेशा की तरह दालान में करीने से सजा दिया। भर की तांबई पड़ती धूप में ताजा उतरे मटके, गमले पांत की पांत जगमगा उठे। जोगी आ कर देखेगा तो दीदे तर हो जाएँगे। दोस्त-दुश्मन सब कहते हैं, सोने पर सुहागा है सगुन की फूलकारी, जोगी के हुनर पर चाँद-तारों के गोटे जड़ देती है... आज की यह जुगलबंदी नहीं। लगभग दो जुग गुज़र गए! लगन कर इस देहरी पर दो आलता रंगे पाँव सकुचाते हुये धरे तब कितने की थी वह!... मक्की के दानों में दूध भी ना पड़े थे! ...Read More
अगिन असनान - 2
अगिन असनान (2) उस दिन जोगी घर लौटा तो चाँद बंसबारी के पीछे उतर चुका था। थाली में धरी पानी-सा ठंडा। ढिबरी का तेल भी खत्म! पहले तो उसे खूब गुस्सा चढ़ा, आधी रात बीता कर घर की सुध आई! ज़रूर कहीं ताड़ी पी कर पड़ा रहा होगा। मगर मूँज की खटिया में मुर्दे-सा पसर गए जोगी को देख उसका मन अजाने डर से भर गया- क्या तो घटा है उसके प्राण में! चढ़ी हुई आँखें, जलती हुई खाल, धौकनी हुआ सीना... माथे पर हाथ धरते ही ऊंगली के पोर दहक गए। पूरे आँगन में चमेली की गंध फैली ...Read More
अगिन असनान - 3 - अंतिम भाग
अगिन असनान (3) रोज़ साँझ जोगी को धूले कपड़े थमाती, पान की गिलौरी साज कर देती, खोंट से पैसे कर हथेली पर धर जब जोगी नदी के पार जाने के लिए नाव पर बैठता, दूर तक उसे जाते देखते हुये हाथ हिलाती रहती... सुबह का तारा पश्चिम में फीका होते-होते जब जोगी चमेली की गंध में नहाया घर लौटता, वह उसके हाथ-पाँव धुलाती, खाना पूछती और फिर उसके उतारे कपड़े समेट कर कुएं के जगत पर जा बैठती और तब तक उन्हें फींचती जाती जब तक उनसे आती चमेली की गंध ना चली जाती। ऐसा करते हुये वह लगातार ...Read More