कच्चा गोश्त ज़किया ज़ुबैरी (1) बित्ते भर का क़द और दस गिरह लम्बी ज़बान!... और जब यह ज़बान कतरनी की भांति चलती तो बृज बिहारी बहादुर भी बगलें झांकते दिखाई देते। भिड़ के छत्ते को छेड़ने से पहले सोचना चाहिए था न कि पंचायत के सरपंच बने बैठे हैं। और दबदबा ऐसा क
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कच्चा गोश्त - 1
कच्चा गोश्त ज़किया ज़ुबैरी (1) बित्ते भर का क़द और दस गिरह लम्बी ज़बान!... और जब यह ज़बान कतरनी भांति चलती तो बृज बिहारी बहादुर भी बगलें झांकते दिखाई देते। भिड़ के छत्ते को छेड़ने से पहले सोचना चाहिए था न कि पंचायत के सरपंच बने बैठे हैं। और दबदबा ऐसा क ...Read More
कच्चा गोश्त - 2 - अंतिम भाग
कच्चा गोश्त ज़किया ज़ुबैरी (2) यही सब सोचती मीना घर की ओर चली जा रही थी कि सामने से मटकने की कोशिश कर रही थी। मीना के भीतर उसे देख कर एक उबाल सा उठा। लगता था प्रकृति जैसे उसकी गर्दन बनाना ही भूल गई थी। धड़ लम्बा और छोटी टांगें। कंधे को एक तरफ़ झुकाए हुए थी। वह अपनी छोटी छोटी टांगों से मीना की तरफ़ लगभग भागी चली आ रही थी।... उसे पहले से ही मालूम था कि सरपंच आज मदन मोहन की मां को क्या फ़ैसला सुनाने वाला है। सारा गांव उसे बुद्दू समझता था, मगर ...Read More