तीसरा मोर्चा सारा मोहल्ला साँय-साँय कर रहा था। रहमान को राहुल कहीं नज'र नहीं आया। वह कुछ देर परेशान-सा राहुल के घर के सामने खड़ा रहा, फि़र जाने कैसे उसे इस सन्नाटे से भय लगने लगा। महसूस हुआ, बंद घरों से झाँकती आँखें उसे घूर रही हैं। वह तेज'ी से मुड़ा और लगभग भागता हुआ गली पार करने लगा। रीढ़ की हड्डी में अजीब सनसनाहट दौड़ रही थी, जैसे उसे पीछे से छूटती गोली का इंतज'ार हो।दौड़ता रहमान अपनी फ़ूली साँस के साथ सड़क तक पहुँचा और चेहरे का पसीना पोंछता हुआ बस पर सवार हुआ। वह"ात उसके रोम-रोम में
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तीसरा मोर्चा
तीसरा मोर्चा सारा मोहल्ला साँय-साँय कर रहा था। रहमान को राहुल कहीं नज'र नहीं आया। वह कुछ देर परेशान-सा के घर के सामने खड़ा रहा, फि़र जाने कैसे उसे इस सन्नाटे से भय लगने लगा। महसूस हुआ, बंद घरों से झाँकती आँखें उसे घूर रही हैं। वह तेज'ी से मुड़ा और लगभग भागता हुआ गली पार करने लगा। रीढ़ की हड्डी में अजीब सनसनाहट दौड़ रही थी, जैसे उसे पीछे से छूटती गोली का इंतज'ार हो।दौड़ता रहमान अपनी फ़ूली साँस के साथ सड़क तक पहुँचा और चेहरे का पसीना पोंछता हुआ बस पर सवार हुआ। वह ात उसके रोम-रोम में ...Read More
नई हुकूमत
नई हुकूमत हाजरा अधेड़ उम्र की दहलीज़ पारकर लुटी-पिटी तन व तन्हा शौहर के घर से जब माँ की पर पहुँची तो जबानी की दौलत लुटा चुकी थी। खिचड़ी होते बाल, रूखा चेहरा, वीरान आँखें और साथ में थे चंद रंग-उड़े टीन के बक्से जो रिक्शेवाले ने दरवाज़े के अंदर धकेल दिए थे।आँगन में कबूतरों को दाना डालती हाजरा की माँ ने फ़ीकी आँखों से बेटी को ताका फि़र जज्वात से बिलबिला घुटनों पर हाथ रख बड़ी मुश्किलों से उठी और बेटी की बलाएँ ले, उसे छाती से लिपटा सुबक पड़ी। माँ-बेटी जब गले मिल चुकीं तो एकएक हाजरा ...Read More
मेरा घर कहाँ
मेरा घर कहाँ लाली धोबिन की मिट्टी तभी से पलीद थी जब से उसका मरद मरा था। तीन बच्चों संग अड्डे पर जाना और घर-घर से जाकर कपड़े समेटना अब उसके बस की बात नहीं रह गई थी। छोटा लड़का साल भर का था। कभी गरम इस्तरी पकड़ लेता तो कभी धुले कपड़े पर अपना लकड़ी का चटुवा फ़ेंक धब्बा लगा देता। तंग आकर लाली ने घरों में काम करने की ठानी। बरतन, झाड़ू और आटा गूँधने से उसके पास इतने पैसे आने लगे कि वह चैन से रोटी के साथ लहसुन की चटनी खा सकती थी। बड़ी लड़की ...Read More
यहूदी सरगर्दान
यहूदी सरगर्दान शराबख़ाने में मेरी मेज़ के ठीक सामने वह बैठा था। मुझे यहाँ बैठे लगभग चार घंटे हो थे और इस बीच मैं उसे सिप़फऱ् मयख़ोरी करते देख रहा था। अपने में डूबा जाने किन वादियों का सप़फ़र तय कर रहा था। बड़ी देर से दबी ख़्वाहिश को अब ज़्यादा देर न दबा सका। बैरे को बुलाकर मैंने कार्ड पर उसके लिए पैग़ाम लिखा और बैरे को थमा दिया।बैरे के हाथ से लेकर उसने पैग़ाम पढ़ा। देर तक उस पर नज़र गड़ाए रहा। फिर उसने मेरी तरप़फ़ देखा और बहुत शालीनता के साथ अपनी कुरसी से खड़ा हो ...Read More
सरहद के इस पार
सरहद के इस पार खपरैल तड़ातड़ कच्चे आँगन में गिरकर टूट रही थी। मगर किसी में हिम्मत नहीं थी आँगन में निकलकर या फिर दालान से ही रेहान को आवाज़ देकर मना करता। अम्मा को दौरा पड़ गया था। हाथ-पैर ऐंठ गए थे। मुँह से झाग निकल रहा था। उनके पास सिप़फऱ् एक ही अभिव्यक्ति रह गई थी और वह थी गिरकर बेहोश हो जाना। फ्मुसीबत जब आती है तो चारों तरप़फ़ से आती है!य् दद्दा ने अम्मा का हाथ सहलाते हुए कहा।फ्रोने से काम नहीं चलेगा लड़की। पीछे की खिड़की से किसी को पुकारो। शायद शकूर घर पर ...Read More
इनसानी नस्ल
इनसानी नस्ल खिड़की से घुसती गरम हवा अपने साथ पत्तियाँ-तिनके और सूखी, बेकार की चीज़ें उड़ाकर ला रही थी। लू के थपेड़ों को चीरती आगे बढ़ रही थी। गरमी इस ग़ज़ब की थी कि खिड़की बंद करना मुश्किल था। प्यास से गला और होंठ ख़ुश्क हो रहे थे। गरम पानी का घूँट भर नवाब ने अपना गला तर किया और रूमाल से अपने चेहरे पर जमी धूल की परत को पोंछा। उसका ज़ेहन भटक रहा था। माँ की बीमारी का तार उसे कल मिला था। तब से अब तक उसके गले से खाने का एक कौर भी नीचे नहीं ...Read More
इमाम साहब
इमाम साहब अज़ान का वक़्त तंग हो रहा था। आँतें कुल हो अल्लाह पढ़ रही थीं मगर खाने का पता नहीं था। शकीलउद्दीन बेचैनी से टहल रहे थे। ”लगता है आज फि़र भूखा रहना िक़स्मत में लिखा है,“ कहते हुए वह बाहर निकले।”ए इमाम साहब ! ज़रा ठहरो, खाना तुम्हारे लिए ही ला रही हूँ,“ बड़े ठस्से से अधेड़ बुलाक़न ने कहा और खाने की सेनी कंधे से उतारी।”बर्तन बाद में ले जाना,“ कहते हुए शकीलउद्दीन ने झटपट खाना मय सेनी के टीन के बक्स में रखा और बड़ी बी के जवाब का इंतज़ार किए बिना चप्पल चटखाते चल ...Read More
काला सूरज
काला सूरज रोज़ रात को राहब मोआसा एक ही सपना देखती कि उसके देश यूथोपिया की सारी ज़मीन हरी-हरी से भर गई है। खेत-खलिहान अनाज से और घने सायेदार दरख़्त फ़लों से लद गए हैं। रिमझिम बारिश हो रही है। बच्चे पानी से भरे गड्ढों में खेल रहे हैं और वह गोद में गदबदा-सा बच्चा लिए उसे दूध पिला रही है। चूल्हे पर उबलती हाँड़ी भाप उड़ाती खदबद-खदबद पक रही है। उसका लंबा-चौड़ा शौहर कसरती बदन के साथ घर में दािख़ल होता है और वह उठकर उसके आगे खाने की रकाबी रख उसमें गर्म-गर्म खाना परोसती है। तभी बड़े ...Read More
ख़ुशबू का रंग
ख़ुशबू का रंग परिन्दों के लौटने का मौसम आ गया है। बफ़र् पिघल-पिघल कर पहाड़ों के दामन पर जमा गई है और जज्मीन नन्ही-नन्ही हरी कोंपलों से भर गई है। मगर मैं वहीं उसी तरह खड़ी हूँ। तुम्हारे लौटने की कोई ख़बर मुझ तक नहीं पहुँचती है, जबकि बेजज्ुबान परिन्दे बिना पुराने ठिकानाें को भूले लौट रहे हैं। ये घोंसले दुरुस्त करेंगे और रहना शुरू कर देंगे, मगर मैं उसी तरह लुटी तन्हा-सी, तश्ना रह जाऊँगी। मौसम यूँ ही बदल जाएँगे और मैं तिनका-तिनका जोड़कर बस उन्हें सँभालती ही रह जाऊँगी। बहुत चाह कर भी उन्हें घर का रूप ...Read More
गूँगा आसमान
गूँगा आसमान प़फ़रशीद ने कूरे पर तिरयाक़ का टुकड़ा लगा, लंबा कश खींचा। दरवाज़े पर मेहरअंगीज़ के हाथों की पड़ी, मगर प़फ़रशीद के कान पर जू न रेंगी। वह उसी तरह लंबे-लंबे कश भरता रहा। उसके लिए नशा करना बहुत ज़रूरी था। यह मेहरअंगीज़ क्या जाने? माहपारा भी नहीं समझ सकती है और दिलाराम और शबनूर तो अभी बच्चियाँ थीं। फ़ूली आँखों से प़फ़रशीद जब हमाम से बाहर निकला तो दस्तरख़ान पर बैठी चारों औरतों ने उसे इस तरह देखा जैसे कहना चाह रही हों, हमारे रहते इसे तिरयाक की लत क्यों लग गई?फ्खाना निकालूँ?य् मेहअंगीज़ ने पति की ...Read More
जड़ें
जड़ें ”इंडिया---इंडिया---कैसा होगा इंडिया|“ गुलशन ने बहते आँसुओं को पोंछते हुए अपनी नीग्रो आया से पूछा।”अच्छा, बहुत अच्छा।“ नीग्रो ने उसके आँसू पोंछकर चट-चट उसके दोनों गालों का चुंबन लिया।”मुझे वहाँ मत भेजो, मुझे अपने से अलग मत करो।“ कहती हुई अट्ठारह वर्ष की गुलशन आया के सीने से लग गई।”बेबी, तुम इंडिया नहीं ग्रेट ब्रिटेन जाओगी, वहाँ तुम्हारी जान को कोई ख़तरा नहीं है, फि़र जैसे ही यहाँ हालात ठीक हुए मैं तुम्हें ख़त डालकर बुला लूँगी।“ आया ने प्यार से पुचकारा, मगर वह जानती थी कि अब गुलशन का यहाँ लौटना नामुमकिन है।”सच कह रही हो न|“ ...Read More