बहीखाता

(143)
  • 323.9k
  • 12
  • 103.1k

पहला कदम बचपन की पहली याद के बारे में सोचती हूँ तो मुँह पर ठांय-से पड़े एक ज़ोरदार थप्पड़ की याद आ जाती है। इस थप्पड़ से पहले की कुछ यादें अवश्य हैं, पर वे सभी यादें धुँधली-सी हैं। इसी प्रकार धुँधली-सी स्मृति वह भी है जब मैं गांव कांजली में गुरु ग्रंथ साहिब की ताबिया पर बैठकर पाठ किया करती थी। मेरे नाना जी ने बचपन में ही मुझे बहुत सारी बाणी कंठस्थ करवा दी थी। परंतु यह थप्पड़ वाली याद कुछ अधिक साफ़ है। जब थप्पड़ बजा होगा तो मुझे इस बारे में कुछ भी पता नहीं होगा, पर बाद में शीघ्र ही पता चल गया था कि यह मेरे स्कूल में बजा था। मैं गलत कक्षा में बैठने की कोशिश कर रही थी। मेरी क्लास तो कच्ची की थी, पर मैं सातवीं कक्षा में अपनी बहन के पास बैठने की ज़िद कर रही थी। स्कूल था - खालसा हाॅयर सेकेंडरी स्कूल, चूना मंडी, पहाड़गंज। कोई चार साल की आयु थी मेरी, मगर स्कूल में प्रवेश लेने के लिए पाँच वर्ष की आयु चाहिए थी। स्कूल की अध्यापिका ने स्वयं ही हिसाब लगाकर मुझे पाँच वर्ष की बना दिया था और मुझे दाखि़ला दे दिया था। यही कारण है कि मेरी असल जन्मतिथि 5 नवंबर 1949 के स्थान पर 20 अक्तूबर 1948 बना दी गई थी।

New Episodes : : Every Monday, Wednesday & Friday

1

बहीखाता - 1

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 1 पहला कदम बचपन की पहली याद के बारे में हूँ तो मुँह पर ठांय-से पड़े एक ज़ोरदार थप्पड़ की याद आ जाती है। इस थप्पड़ से पहले की कुछ यादें अवश्य हैं, पर वे सभी यादें धुँधली-सी हैं। इसी प्रकार धुँधली-सी स्मृति वह भी है जब मैं गांव कांजली में गुरु ग्रंथ साहिब की ताबिया पर बैठकर पाठ किया करती थी। मेरे नाना जी ने बचपन में ही मुझे बहुत सारी बाणी कंठस्थ करवा दी थी। परंतु यह थप्पड़ वाली याद कुछ अधिक साफ़ है। जब थप्पड़ बजा होगा ...Read More

2

बहीखाता - 2

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 2 पहाड़गंज पहाड़गंज का मुल्तानी ढांडा, गली नंबर चार। यह सभी गलियों से चैड़ी होती थी। गली के दोनों ओर घर होते थे। हमारे घर के दोनों तरफ जो घर थे, उनमें हमारे वही रिश्तेदार और पड़ोसी रहते थे जो पाकिस्तान में भी साथ-साथ रहते आए थे। गुजरांवाले ज़िले के एक गांव ‘गुरु कीआं गलोटियाँ’ से पाँच-सात घर इकट्ठे ही उठे थे और इकट्ठे ही यहाँ आ बसे थे। इनमें एक घर लाहौरियों का भी आ बसा था, पर शीघ्र ही वे भी दूसरे रिश्तेदारों की भाँति लगने लग पड़ा ...Read More

3

बहीखाता - 3

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 3 ट्रकों वाले गली नंबर चार के एक कोने पर वालों का घर था। वैसे गली दोनों तरफ खुलती थी, थी क्या अभी भी खुलती है। इस घर में दो परिवार रहते थे। इस परिवार की दोनों बहनें आपस में देवरानी-जेठानी भी लगती थीं और दोनों भाई साढ़ू भी। दोनों घरों के मुख्य कमरे और रसोइयाँ अलग अलग थीं, लेकिन आँगन और टायलेट साझा ही था। इनके घर का आकार बड़ा होने के कारण आँगन भी काफ़ी खुला-खुला लगता था। ये दोनों परिवार रावलपिंडी से आकर यहाँ बस गए थे। ...Read More

4

बहीखाता - 4

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 4 अंदर की दुनिया मेरी हालत अजीब-सी रहने लगी। मैं खोयी घूमने लगी। यद्यपि मैं पूरी तरह नहीं जानती थी कि मेरे साथ क्या हुआ, पर इतना अवश्य पता था कि कोई गन्दी बात हुई थी। चूचो के मामा ने बहुत गलत हरकत की थी मेरे संग। न किसी को बताने योग्य थी और न कुछ और करने लायक। एक अजीब-सा डर, नफ़रत, अलगाव मेरे अंदर घर करने लगा। मैं घर में उखड़ी-उखड़ी रहती, पर कोई मेरी ओर देखता ही नहीं था, मानो किसी को मेरी चिंता ही नहीं थी। ...Read More

5

बहीखाता - 5

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 5 मिडल स्कूल यह सन् 1960 की बात है जब प्राइमरी की पढ़ाई पूरी करके मिडल स्कूल में पहुँच गई थी। मिडल स्कूल कोई अलग स्कूल नहीं था। एक ही स्कूल की आमने-सामने दो इमारतें थीं। एक इमारत में प्राइमरी की पढ़ाई और दूसरी इमारत में मिडल और हॉयर सेकेंडरी की पढ़ाई हुआ करती थी। मेरे छठी कक्षा में पहुँचने और दूसरी इमारत में जाने से पहले ही मेरी बड़ी बहन आठवीं पास करके स्कूल छोड़कर जा चुकी थी। उसने मैट्रिक करने के लिए किसी प्राइवेट कालेज में दाखि़ला ले ...Read More

6

बहीखाता - 6

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 6 माहौल हमारी गली का माहौल पूरी तरह पंजाबी था। गली क्या, पूरा मुल्तानी ढांडा ही पंजाबी था। जो हिंदू थे अथवा किसी अन्य कौम के थे, वे भी पंजाबी ही बोलते थे। पंजाबी यूँ बोलते कि मानो पंजाबी में ही सोचते होंगे। कुछ मुल्तानी लोग भी मुहल्ले में रहते थे। असल में, मुल्तानियों के कारण ही इस इलाके का नाम मुल्तानी ढांडा पड़ा हुआ था। वह कुछ भिन्न प्रकार की पंजाबी बोलते। वे जब साधारण बातचीत भी कर रहे होते तो यूँ प्रतीत होता मानो लड़ रहे हों। मुझे ...Read More

7

बहीखाता - 7

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 7 सपना भाबो अर्थात मामी हर समय मेरे अंग-संग ही थी। कभी वह मुझसे पूछती कि मैं क्या बनना चाहती हूँ तो मैं कह देती कि मुझे तो स्कूल टीचर बनना है। स्कूल की अध्यापिकायें मुझे अच्छी भी बहुत लगती थीं। भाबो मेरे सपने को पंख लगाते हुए कहती, “गुड्डो ! जब तू नौकरी करेगी तो मैं तेरे साथ रहा करूँगी। तू काम पर जाया करना, मैं तेरा घर संभाल लिया करूँगी। तेरा खाना बनाऊँगी, तेरे कपड़े धो दिया करूँगी।“ मुझे भाबो की ये बातें बहुत अच्छी लगतीं। मैं भी ...Read More

8

बहीखाता - 8

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 8 कालेज की ज़िन्दगी कालेज में लड़के-लड़कियाँ एकसाथ पढ़ते थे, में खुलकर बातें भी करते थे। कुछ एक जोड़े भी बन रहे थे। वे हर समय साथ-साथ घूमते, फिल्में देखते, रेस्तरांओं में बैठते। परंतु मेरे ग्रुप की लड़कियाँ कुछ मेरे जैसी ही थीं। पिछड़ी-सी। हमारे ग्रुप की किसी भी लड़की में लड़के के साथ मित्रता बनाने की हिम्मत नहीं थी। हम लड़कों के सिर्फ़ सपने ही देखती थीं। हम किसी लड़के को दूर से देखकर ही उसके बारे में सोचने लगतीं। उसे लेकर सपने बुनती रहतीं। हम सभी एक साथ ...Read More

9

बहीखाता - 9

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 9 लड्डू घाटी लड्डू घाटी पहाड़गंज का विशेष मुहल्ला हुआ था/है। यह रेलवे स्टेशन के करीब पड़ता था/है। अब तो सारा पहाड़गंज ही होटलों से भर गया है। तब साधारण से घर हुआ करते थे। पहले इकहरी मंज़िलें ही हुआ करती थीं, पर फिर ज़रूरत के अनुसार मंज़िलें ऊपर बढ़ने लगीं। वह वक्त ऐसा था कि पहाड़गंज में भैंसों की डेरियाँ भी होती थीं और दूधिये दूध बेचने हमारे घर आया करते थे। इस सारे इलाके का उस वक्त का जीवन ग्रामीण-सा ही होता था। लड्डू घाटी में हमारा एक ...Read More

10

बहीखाता - 10

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 10 यूनिवर्सिटी मैंने कालेज में प्रवेश तो ले लिया था, हमारी अधिकतर कक्षायें यूनिवर्सिटी में ही लगा करती थीं। ट्यूटोरियल ग्रुप की क्लास ही कालेज में होती। यहाँ आकर मेरा पंजाबी साहित्य के महारथियों से वास्ता पड़ने लगा। परंतु वे साहित्यकार होने से पहले मेरे अध्यापक थे। डॉ. हरिभजन सिंह, डॉ. त्रिलोक सिंह कंवर, डॉ. अतर सिंह, आत्मजीत सिंह। इनके साथ साथ जोगिंदर सिंह सोढ़ी हमें उपन्यास पढ़ाते थे। ये वही जोगिंदर सिंह सोढ़ी थे जो पंजाबी की प्रसिद्ध गायिका सुरिंदर कौर के पति थे। इनके पढ़ाने का ढंग बहुत ...Read More

11

बहीखाता - 11

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 11 छात्राओं जैसी लेक्चरर मैं मैत्रेयी कालेज में लेक्चरर लग अपनी आयु की लड़कियों को और कई अपने से भी बड़ी आयु की लड़कियों को पढ़ाने लग पड़ी। मेरा कोई अनुभव तो था नहीं, पर मैंने अपने अध्यापकों को पढ़ाते हुए देखा था। उन्हें ऑब्जर्व करती रही थी। यह ऑब्जर्वेशन मेरे काम आने लगी। यह मेरे लिए अनुभव भी था और चुनौती भी। कई बार मैं सोचती कि कहाँ आ फंसी हूँ। शायद यह काम मेरे वश का नहीं। मेरा सपना तो छोटे बच्चों को पढ़ाने का था, अपने हमउम्र ...Read More

12

बहीखाता - 12

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 12 माँ का पति भापा जी के निधन के बाद ही घर में ऐसी थी जो घर का खर्च उठा रही थी। यद्यपि भापा जी की तनख्वाह मेरे से बहुत अधिक थी और हाथ खुला था, पर अब जैसा भी था, सारा जिम्मा मेरे सिर पर ही था। मेरा भाई तब पढ़ाई कर रहा था। मेरी अपनी माँ के साथ निकटता बढ़ने लगी। माँ मेरी बात को बड़े ध्यान से सुनती, बिल्कुल वैसे ही जैसे वह भापा जी की बात को सुना करती थी। मेरी राय घर में अंतिम राय ...Read More

13

बहीखाता - 13

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 13 पीएच.डी. एक दिन मैं यूनिवर्सिटी में आयोजित हो रहे सेमिनार में हिस्सा लेने गई। वहाँ जाकर देखा कि आलोचना के मामले में कितना कुछ बदल गया था। आलोचना की नई नई प्रणालियों के बारे में बातें हो रही थीं। पंजाबी साहित्य को लेकर अन्य तरह की बातें हो रही थीं। मुझे लगा मानो ये किसी परायी दुनिया की बातें हो रही हों। मुझे अपना आप आउट-डेटिड प्रतीत होने लगा। मैं तो कालेज में गिद्धे-भंगड़े में ही मशरूफ रही जैसे कुएं का मेंढ़क ही बन गई थी और यूनिवर्सिटी में ...Read More

14

बहीखाता - 14

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 14 दिल्ली स्कूल ऑफ़ क्रिटिसिज़्म और वापसी जैसा कि मैंने कहा, अब तक दिल्ली स्कूल ऑफ़ क्रिटिसिज़्म कायम हो चुका था। मैं इसका एक अंग बनने जा रही थी। डॉक्टर साहब की आलोचना प्रणाली को समझने का मैं हरसंभव यत्न करती। अब मैं सुबह जल्दी ही यूनिवर्सिटी आ जाया करती और डॉक्टर साहब की एम.ए. की कक्षायें अटैंड करती। इसकी मैंने उनसे अनुमति ले रखी थी। इसका लाभ मुझे यह होता कि ये कक्षायें मुझे संरचनावाद और रूपवाद को समझने में मदद करतीं। फिर डॉक्टर साहब के पढ़ाने का ढंग ...Read More

15

बहीखाता - 15

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 15 सह-संपादक अब मैंने साहित्य में आगे के कदम रखने कर दिए थे। मेरा एक मुकाम बन चुका था। जब भी नई आलोचना की बात आती तो मेरा नाम सबसे आगे दिखता। नई पीढ़ी के कवि मुझसे ही अपनी किताब की आलोचना करवाना चाहते। मेरी निष्पक्षता की सभी दाद देते। दिल्ली से ही एक मैगज़ीन निकलता था - कौमी एकता। यह शायद उस समय के सभी परचों में सबसे अधिक छपता था। यह मैगज़ीन पंजाबी लोगों के हर घर का सिंगार बना हुआ था। इसमें हर प्रकार के पाठक के ...Read More

16

बहीखाता - 16

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 16 रिश्ता ज़िन्दगी के कई वर्ष गुज़र गए, घर का अभी सपना ही था जिसको हक़ीकत की ज़मीन अभी नसीब नहीं हुई थी। इसका अर्थ यह नहीं कि मैंने इसके बारे में सोचा नहीं था। सोचा भी था और उस अहसास के मंदिर की घंटियाँ मेरे कानों में भी बजी थीं। उस खूबसूरत अहसास की महक को मैंने भी अपने आसपास देखा था। एक महक-सी मेरे चारों तरफ के वातावरण में भी बिखरी थी। मैं भी हवा में उड़ी थी। मैंने भी काँच की चूड़ियों की खनक सुनी थी। मुझे ...Read More

17

बहीखाता - 17

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 17 जान बची ! मैं जज़्बों की बड़ी बड़ी लहरों टंगी फिरती थी। बाहर से मन में ठहराव रखती, पर अंदर बहुत कुछ घटित हो रहा होता। इन्हीं दिनों भाई आनंद सिंह मिल गए। वही भाई आनंद सिंह जो तीन नंबर गली में ग्रंथी हुआ करते थे। जो बहुत बढ़िया पाठ किया करते थे, जिन्होंने मेरे नौकरी लगने पर पाठ किया था। ये अब वो भाई आनंद सिंह नहीं रहे थे। वह अब अमेरिका रिटर्न भाई आनंद सिंह बन गए थे। जैसे तैसे वह अमेरिका पहुँच गए थे। वहाँ के ...Read More

18

बहीखाता - 18

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 18 झूठा वायदा और चूड़ियों की खनक वैनकुवर के एयरपोर्ट बाहर निकलते हुए सोच रही थी कि इस देश का दाना पानी चुगना मेरे भाग्य में बदा था। न ग्रंथी आँखें दिखलाते और न मैं कैनेडा आती। रविंदर रवि का नाम मेरे मन में आते ही लंबे कद का व्यक्ति सामने आ खड़ा होता। वह जाना-पहचाना लेखक था। मैंने उसकी रचनायें भी पढ़ी हुई थीं। मुझे यह सब अच्छा अच्छा लगा रहा था। मैं कस्टम से बाहर निकली तो रवि खड़ा मेरी ही प्रतीक्षा कर रहा था। उसके साथ मनजीत ...Read More

19

बहीखाता - 19

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 19 उड़ान मैं और हवाई जहाज एकसाथ उड़ रहे थे। अपनी स्पेश में और मैं अपनी स्पेश में। यह मेरा पहला हवाई सफ़र नहीं था, पर उड़ान पहली थी। एक भारी सी आवाज़ कानों में बार बार गूंज रही थी, ‘मेरा घर तेरा इंतज़ार कर रहा है।’ एकबार तो मैं सोच में पड़ गई थी कि कहीं यह शब्द-छलावा तो नहीं क्योंकि घर शब्द के पीछे तो मैं बहुत समय से दौड़ी घूमती थी और यह हाथ नहीं आ रहा था। फिर सोचा कि ये ठोस मुँह में से निकले ...Read More

20

बहीखाता - 20

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 20 सवाल मुझे पता था कि लंदन में इस समय होगी। ठंड तो दिल्ली में भी खूब थी। मैं भारी कपड़े ले आई थी। हवाई जहाज में भी बाहरी तापमान माइनस से नीचे बता रहे थे। लेकिन जहाज के अंदर का माहौल बड़ा रौनकवाला और गरम था। वह क्रिसमस का दिन था। सभी एयर होस्टेस ने कानों में लाल और सफ़ेद रंग के सांटा के डिजाइनवाली बालियाँ पहन रखी थीं। फ्लाइट ब्रिटिश एयरवेज़ की थी इसलिए अंदर का वातावरण क्रिसमस वाला ही था। सोच रही थी, कैसा संयोग था कि ...Read More

21

बहीखाता - 21

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 21 रिसेप्शन मुझे उनकी दो बातें चुभने लगी थीं। एक सिगरेट पीना और दूसरे शराब पीकर बड़बोला हो जाना। ये दोनों बातें ही मेरे बचपन से लेकर मेरे इंग्लैंड आने तक मेरे से दूर रही थीं। मैं तो यह किसी न किसी प्रकार सहन कर रही थी, पत्नी धर्म निभाना था या कुछ और, पर मेरी माँ, भाभी और भाई इनकी इन आदतों को कैसे लेंगे, इसे लेकर मैं चिंतित थी। अब हमारा वापस इंडिया जाने का कार्यक्रम बन रहा था। इंडिया जाकर हमने कोर्ट मैरिज रजिस्टर करवानी थी, धार्मिक ...Read More

22

बहीखाता - 22

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 22 साहित्य का अखाड़ा जिस बात से मैं बहुत डरती उससे बचाव हो गया। मुझे लगता था कि चंदन साहब सुरजीत सिंह के तीन हज़ार के उधार को लेकर शायद कोई विवाद खड़ा करें, पर उन्होंने नहीं किया। सुरजीत सिंह पैसे लेने के लिए अपने एक मित्र के पास जर्मनी चला गया। सुरजीत ने अपने मित्र से वो पैसे लाकर चंदन साहब को लौटा दिए। मैंने राहत की सांस ली। अलका कभी-कभी ही घर आती थी, पर अब वह मुझसे कुछ नाराज़ रहने लगी थी। एकबार तो उसने टेलीफोन करके ...Read More

23

बहीखाता - 23

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 23 गर्भपात सितंबर का महीना आने से पहले ही हम जाने की तैयारियाँ करने लग पड़े। चंदन साहब ने अर्ली रिटायरमेंट के लिए आवेदन कर दिया। अब वह दिल्ली में स्थायी रूप से रहना चाहते थे। वह बार-बार कहने लगते कि वह दिल्ली जाएँगे और साहित्य जगत में छा जाएँगे। साहित्य जगत में तो वह अब भी छाये हुए थे, पर उन्हें तसल्ली नहीं थी। मैं इंग्लैंड में रहने आई थी और वह वापस दिल्ली जाना चाहते थे। जो उनका निर्णय था, उसके आगे सिर तो झुकाना ही था। उन्होंने ...Read More

24

बहीखाता - 24

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 24 डिप्रैशन नवंबर 1990 । चंदन साहब ने इंडिया जाने लिए सीटें बुक करवा लीं। अबॉर्शन से दो दिन बाद की ही फ्लाइट थी। मैं तो अभी चलने योग्य भी नहीं थी, पर चंदन साहब मुझे उड़ान भरने के लिए कह रहे थे। मेरे पास उनका कहना मानने के सिवाय दूसरा कोई चारा भी नहीं था। चंदन साहब ने तो पूरी तैयारी की हुई थी। यह घर काउंसिल को किराये पर दे दिया था। घर का कुछ सामान बेच दिया था और कुछ भारत में कंटेनर बुक करवाकर भेज दिया ...Read More

25

बहीखाता - 25

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 25 अर्ली रिटायरमेंट मेरे लिए विवाहित जीवन का अर्थ था भरपूर विवाहित जीवन। लेकिन मेरे विवाहित जीवन में बहुत कमी थी। एक बात अच्छी यह हुई थी कि मैंने अपनी भान्जी का विवाह अपने हाथों से किया था। मैंने माँ वाले सभी फर्ज़ निभाये थे और चंदन साहब ने पिता वाले। मेरी बड़ी बहन पटियाला में ब्याही हुई थी। मेरे से आयु में काफ़ी बड़ी थी और मेरी यह भान्जी आमतौर पर दिल्ली में ही मेरी माँ के पास रहा करती थी। चंदन साहब उसको बहुत पसंद करते थे इसीलिए ...Read More

26

बहीखाता - 26

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 26 अचानक… और प्लेग हमसे नीचे वाला फ्लैट एस. बलवंत था। हमारे फ्लैट के ऊपर इमारत की छत थी। यह छत हमने एक लाख रुपये देकर खरीदी थी। यहाँ हम बैठकर सर्दियों में धूप सेंका करते थे। नीचे से बलवंत की बेटी और पत्नी आ जाया करतीं। धूप में बैठकर हम मूंगफली टूंगती रहतीं। कभी कभी उनका नौकर भी सिगरेट पीने ऊपर छत पर आ जाता। चंदन साहब को यह बात पसंद नहीं थी। छत के पैसे हमने दिए थे और इस्तेमाल दूसरे भी कर रहे थे। उन्होंने वहाँ ताला ...Read More

27

बहीखाता - 27

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 27 मझदार और घर-निकाला इंग्लैंड में मात्र दस दिन रहकर दिल्ली लौट गई। हवाई जहाज में बैठी यही सोचती रही कि लोगों को क्या मुँह दिखाऊँगी। मित्र क्या कहेंगे। मेरी माँ, भाभी और भाई क्या सोचते होंगे। जब मैंने फोन करके भाई से कहा था कि मैं कल आ रही हूँ, एयरपोर्ट पर आकर मुझे ले जाना, वह तो तभी सुन्न हो गया था। भाई मुझे लेने आया हुआ था, पर वह चुप था। चंदन साहब के स्वभाव को वह अच्छी प्रकार जानता था, इसलिए एक भय-सा उसके चेहरे पर ...Read More

28

बहीखाता - 28

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 28 उम्मीद रात का समय था। गहरा अँधेरा था और हल्की बारिश हो रही थी। ऊपर से जबर्दस्त ठंड। गर्मी के मौसम में भी इतनी ठंड पड़ सकती है इसका मुझे पता ही नहीं था। मैं अपना बैग उठाये बाहर सड़क पर खड़ी थी। अपनो से दूर, बेगाने मुल्क में, बिल्कुल अकेली। सड़क एकदम वीरान थी। कोई कोई कार उधर से गुजरती। पता नहीं उसमें बैठे लोग मेरी तरफ देखते थे कि नहीं, पर मैं अपनी ओर अवश्य देख रही थी। किसी फिल्म के सीन-सा लगता था सबकुछ। अब कहाँ ...Read More

29

बहीखाता - 29

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 29 चाल इंग्लैंड में मेरे बसने के पीछे निरंजन सिंह का बहुत बड़ा हाथ है। नूर साहब मेरे लिए जिंदा रोल मॉडल बनकर साबित हुए। लंदन में मुझे न कोई नौकरी मिली और न ही मेरी इसमें किसी ने कोई मदद की। यदि चंदन साहब के हाथ-वश में होता तो वह कभी भी मेरे पैर वहाँ न लगने देते। वह तो जो भी मेरे साथ जुड़ता था, उसके संग ही लड़ पड़ते थे। यूँ दिल से वह यही चाहते थे कि मैं नौकरी न करूँ। इसके पीछे मेरी शख्सियत पर ...Read More

30

बहीखाता - 30

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 30 हादसा कभी कभी मैं सोचती कि मेरी शख्सियत में सी ऐसी कमी है कि मैं चंदन साहब को अभी तक झेले जा रही हूँ। शायद मेरे नरम स्वभाव का वह लाभ उठाते जा रहे थे। इसी स्वभाव के कारण ही वह फ्लैट पर कब्ज़ा कर गए थे। अब कभी भी उसको बेच सकते थे। मैं फिर से डिप्रैशन में रहने लगी। मेरा मानसिक संतुलन बिगड़ने लगा। मैं महीने की दवा लेकर आई थी और मेरी दवा खत्म हो चुकी थी। सो, ब्लीडिंग फिर शुरू हो गई। इंडिया में यह ...Read More

31

बहीखाता - 31

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 31 मकसद भाई की मौत के दुख में से मैं उबरने लगी। मित्रों ने इसमें मेरी बहुत मदद की। मेरा ही विद्यार्थी बिपन गिल अफसोस प्रकट करने आया तो एक लिफाफा दे गया। खोलकर देखा, उसमें दो सौ पौंड थे। अब तक मैंने कुछ पैसे इकट्ठे कर लिए थे ताकि इंडिया जा सकूँ। कालेज से छुट्टी ली और शीघ्र ही दिल्ली एअरपोर्ट पर जा उतरी। एयरपोर्ट पर जसविंदर मुझे लेने आई हुई थी। जसविंदर के साथ सोढ़ी भी था। सोढ़ी मेरा भतीजा जो उस समय सिर्फ़ सात वर्ष का था। ...Read More

32

बहीखाता - 32

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 32 समझौता उनके एक्सीडेंट ने मुझे बहुत तंग किया। कुछ तक मैं सोचती रही कि उनकी ख़बर लेने जाऊँ या न जाऊँ। मेरा आधा मन रोक रहा था और दूसरा आधा मन जाने के लिए कह रहा था। विवाह के अनुभव वाला पक्ष यह कह रहा था कि नहीं जाना चाहिए। मानवीय पक्ष कह रहा था - जाना चाहिए। आखि़र मैं उन्हें देखने अस्पताल चली गई। निरंजन सिंह ढिल्लों मेरे साथ थे। अस्पताल में चंदन साहब पट्टियों में लिपटे लेटे हुए पडे थे। टांगों और बांहों को ऊपर करके बांधा ...Read More

33

बहीखाता - 33

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 33 एक और हादसा इन दिनों मैंने सख़्त काम भी पर साथ ही ड्राइविंग टेस्ट भी पास कर लिया और अपनी कार भी खरीद ली। अब मुझे आसपास जाने के लिए बस पकड़ने की ज़रूरत नहीं रह गई थी। कार चलाना मेरे लिए एक अच्छा अनुभव था। और सब कुछ ठीक चल रहा था, पर चंदन साहब का दोबारा फोन न आया। यदि कभी आया भी तो उसमें फिर से इकट्ठे होने की बात नहीं हुई। इधर मेरी माँ मुझ पर ज़ोर डाल रही थी कि यदि चंदन ने फोन ...Read More

34

बहीखाता - 34

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 34 एंजाइना निरंजन सिंह नूर साहब की मौत मुझे झिंझोड़कर गई। इंग्लैंड में एक प्रकार से वह मेरी ताकत थे। भाई की मृत्यु के बाद बड़ा भाई बनकर उन्होंने मेरा साथ दिया था और मेरे भाई के अधूरे रह गए सपनों को पूरा करने में मेरी मदद का वायदा भी किया था। उनके कारण ही मैं इस मुल्क में थी। यदि वह मुझे वुल्वरहैंप्टन न लाते तो मैं कब की वापस लौट गई होती या फिर कही मर-खप गई होती। उनकी मृत्यु ने मुझे बहुत बड़ा भावुक अभाव दे दिया ...Read More

35

बहीखाता - 35

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 35 बाईपास इन्हें सामने देखकर मैं अवाक् रह गई। अंदर करते हुए उनकी तेज़ रुलाई फूट पड़ी। बोले - “साली यह भी कोई ज़िन्दगी है कि सिगरेट भी न पी सको।” रोते हुए बताने लगे कि कैसे उन्हें सिगरेट की तलब हुई, कैसे वह अपने वार्ड से बाहर आए और सड़क पर पड़े सिगरेट के टुकड़ों को उठाकर किसी से लाइटर मांगकर उन्हें पीने लगे। फिर अपने आप को लाहनतें दीं और अपनी ज़िद पर अस्पताल से सैल्फ डिस्चार्ज़ होकर आ गए। बंदिशों में बंधकर रहना इनकी फितरत में नहीं ...Read More

36

बहीखाता - 36

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 36 कैसे जाओगे ? और वोलकेनो… पंजाब के दौरे पर एक दिन मैं पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला गई। कोई समारोह था। समारोह के बाद हम बहुत सारे लेखक मित्र जसविंदर सिंह के घर एकत्र हुए। वहीं मैंने अचानक गुरविंदर रंधावा को देखा। तेजबीर के दोस्त को। वह मुझे एक कोने में ले जाकर बताने लगा, “तुम्हें पता है कि तेजबीर की इस वक्त क्या हालत है ?” मुझे इस बारे में क्या पता हो सकता था। मैं उसके बारे में बहुत वर्षों से कुछ नहीं जानती थी। मैंने मालूम करने की ...Read More

37

बहीखाता - 37

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 37 जन्मदिन कभी-कभी कुछ दिन खुशी में भी बीत जाते। किसी तरफ घूमने निकल जाते। कोई बढ़िया किताब पढ़ते तो सार्थक बातें भी होतीं, पर बहस के अंत में इनकी दलील को ही सही माना जाता था। अमनदीप के घर बेटे का जन्म हुआ। चंदन साहब के घर पोता। अमनदीप से बच्चे की ख़बर सुनते ही चंदन साहब पोते को देखने के लिए जाने की तैयारी करने लगे। मुझे भी साथ जाना था। बहुत सारी लड़कियाँ देखने के बाद अमनदीप को इंडिया से एक लड़की सिम्मी पसंद आ गई थी। ...Read More

38

बहीखाता - 38

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 38 रजनी लंदन में एक कवि रहता था - गुरनाम उसका मुम्बई में आना-जाना था। यह सोचते थे कि शायद वह इनकी स्क्रिप्ट पर फिल्म बनाने में कोई मदद कर देगा। इन्होंने उसके संग दोस्ती गांठ ली। दोस्ती तो खै़र पहले भी होगी, दोनों ही पुराने व्यक्ति थे। उसके साथ यह मुम्बई जाने का प्रोग्राम बनाने लगे। प्रोग्राम बनाने क्या लगे, ये चले ही गए। मैं घर में अकेली रह गई। अकेली तो मैं पहले भी कई बार रही थी। जब कभी भी दिन-त्योहार होता तो यह अकेले ही कहीं ...Read More

39

बहीखाता - 39

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 39 प्लैन जसबीर ने हम दोनों को अमेरिका आने का दिया हुआ था। वह अपनी सहेली से चंदन साहब को भी मिलवाना चाहती थी, पर चंदन साहब आज कल कुछ दूसरी ही हवाओं में उ़ड़े फिरते थे। पहले तो वह मेरे साथ अमेरिका जाने के लिए राजी हो गए थे, पर अब जब से मुम्बई से वापस लौटे थे, कहानी बदल चुकी थी। अमेरिका जाने का विचार उन्होंने रद्द कर दिया। चंदन साहब ने पहले मुझे मैंटली टॉर्चर किया। कभी रीमा की बातें करके और कभी मुझे पागल होने, बीमार ...Read More

40

बहीखाता - 40

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 40 शैल्टर होम कुछ दिनों से मुझे लग ही रहा कि अब मुझे इस घर से जाना ही है, पर यूँ इतनी जल्दी जाऊँगी, यह नहीं सोचा था। मैं सोचती थी कि जब अधिक ही बर्दाश्त से बाहर हुआ तो कहीं किराये का कमरा ढूँढ़ लूँगी और ज़िन्दगी दोबारा नए सिरे से शुरू कर लूँगी। कहाँ कभी मैं अपने फ्लैट की मालिक थी और कहाँ घर से निकाली हुई औरत। 15 बरस विवाह को हो चुके हैं और मैं खानाबदोशों की भाँति कहाँ कहाँ भटक रही थी। अब तो नूर ...Read More

41

बहीखाता - 41

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 41 घर की परिभाषा मैं दो सप्ताह अमेरिका में रही। के साथ बातें करके तरोताज़ा हो गई। जितने दिन अमेरिका में रही चंदन साहब गै़र-हाज़िर रहे। परंतु गै़र-हाज़िर भी कहाँ थे, हर समय तो उन्हीं की बातें, हर वक्त उन्हीं के सपने। चीख-चिल्लाहट, धुआँ, शराब की गंध तथा और पता नहीं कितना कुछ। वापस वुल्वरहैंप्टन पहुँचकर फिर से वही सब कुछ। फिर भी खुश थी कि अपने लोगों के बीच आ गई। चंदन साहब के बग़ैर सारा शहर ही अपना लगता था। हर कोई प्यार देता था। हर किसी को ...Read More

42

बहीखाता - 42

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 42 घर से काउंसिल के फ्लैट तक इस घर का बहुत था। मुझ अकेली के लिए यह बोझ उठाना कठिन हो गया। न चाहते हुए भी मैंने काउंसिल के फ्लैट के लिए आवेदन कर दिया। अपना फ्लैट तो चंदन साहब के पास वापस जाने की सज़ा के तौर पर हाथ से निकल चुका था। अब काउंसिल ही एकमात्र विकल्प था जिसके किराये कम होते हैं। काउंसिल ने मुझे घर तो देना नहीं था, मेरे लिए फ्लैट ही काफ़ी था। मैंने आवेदन तो कर दिया था, पर फ्लैट कब मिलेगा, कुछ ...Read More

43

बहीखाता - 43

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 43 हमदर्दी एक दिन दिल्ली से किसी वकील की चिट्ठी यह चिट्ठी चंदन साहब की ओर से भिजवाई गई थी। लिखा था कि मैं दिल्ली वाले फ्लैट से दूर रहूँ। यदि इस पर किसी तरह का कब्ज़ा करने की कोशिश की तो इसके नतीज़े बुरे होंगे। ज़ाहिर था कि चंदन साहब फ्लैट हड़पना चाहते थे। मैं बहुत कुछ कर भी नहीं सकती थी। फ्लैट तो उनके नाम पर ही था जो उन्होंने पहले ही मेरी बीमारी के दिनों में अपने नाम करवा लिया था। मुझे पता चला कि जब चंदन ...Read More

44

बहीखाता - 44

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 44 अविश्वास और तलाश चंदन साहब द्वारा घर बेचने पर मैंने रोक लगवा दी थी, पर उसके बाद कुछ नहीं किया। चाहिए तो मुझे यह था कि घर में से और दिल्ली वाले फ्लैट में से अपना हिस्सा माँगूं, पर इस बात पर बेपरवाह और सुस्त ही रही। शायद अपनी ज़िन्दगी में खुश थी इसलिए किसी सिरदर्दी से बचना चाहती थी। चंदन साहब तो आराम से बैठे थे। दिल्ली वाला फ्लैट उन्होंने किराये पर दे दिया था, वहाँ से किराया आता था। यहाँ भी घर का एक हिस्सा किराये पर ...Read More

45

बहीखाता - 45

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 45 मनहूस ख़बर दिसंबर का महीना था। मैं ज़रा देर ही उठी। इतनी ठंड में किसका उठने को दिल करता है। मैंने पर्दे हटाये तो अजीब-सा उदास करने वाला दिन था। उदास दिन को देखकर मेरा दिल भी उदास हो गया। कुछ देर बाद ही हरजीत अटवाल का फोन आया, “चंदन साहब नहीं रहे।“ चंदन साहब की मृत्यु की ख़बर सुनकर पता नहीं मैं क्यों रोने लगी। कितनी ही देर रोती रही। व्यक्ति का क्या है ? किस तरह उन्होंने जिस सम्पत्ति को बचाने के लिए कितने झूठ बोले थे, ...Read More

46

बहीखाता - 46

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 46 एक लेखक की मौत चंदन साहब चले गए। कुछ उनके धुंधले-से अक्स दिखते रहे। कभी फोन बजता तो लगता कि शायद उन्होंने ही गालियाँ देने के लिए किया होगा। कभी बाहर जाती तो किसी की ओर देखकर लगता कि शायद वही हों। कुछ दिन मुझे अजीब-सी उदासी और एकाकीपन भी महसूस होता रहा। यद्यपि मैं पहले भी अकेली ही थी, पर कुछ गुम हो गया-सा महसूस होने लगा। फिर शीघ्र ही यह सब बिसरने लगा। ज़िन्दगी आम-सी हो गई। यह हादसा जैसे हुआ ही न हो। चंदन साहब के ...Read More

47

बहीखाता - 47 - अंतिम भाग

बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 47 मलाल बहुत सारी ख्वाहिशें थी ज़िन्दगी में। जैसे कि कहता है कि हर ख्वाहिश पे दम निकले। बहुत सारी ख्वाहिशें अधूरी ही रह गईं। ज़िन्दगी में एक ऐसा मोड़ भी आया कि मेरी एक ख्वाहिश सबसे ऊपर आ गई और बाकी की ख्वाहिशें दोयम दर्जे पर जा पड़ीं। यह ख्वाहिश थी, अपनी माँ की सेवा करना। मेरी माँ ने बहुत दुख देखे थे। बहुत तकलीफ़ों भरी ज़िन्दगी जी थी। पिता के मरने के बाद वह पिता भी बनी थी और माँ भी। उसने मौतें भी बहुत देखी थीं। अपने ...Read More