फ़ैसला

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जून का महीना। उफ! ऊपर से ये गरमी। रात हो या दिन दोनों में उमस जो कम होने का नाम नहीं ले रही थी। दिन की चिलचिलाती धूप की तपिस से रात को घर की दीवारें चूल्हें पर रखे हुए तवे की तरह मानों अपनी गरमी उगल रही हों। ऐसे में रात को 12 बजे भी नींद आने का नाम नहीं ले रही थी। पंखे ओर कूलर तो जैसे हवा की जगह आग उगल रहे हों। ऐसे में आंखों में नींद आने का नाम नहीं ले रही थी। उसने अपनी टेबल लैम्प का स्विच ऑफ किया और चेयर को पीछे को धकेल कर बालकनी पर आकर चहल-कदमी करने लगा।

Full Novel

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फ़ैसला - 1

जून का महीना। उफ! ऊपर से ये गरमी। रात हो या दिन दोनों में उमस जो कम होने का नहीं ले रही थी। दिन की चिलचिलाती धूप की तपिस से रात को घर की दीवारें चूल्हें पर रखे हुए तवे की तरह मानों अपनी गरमी उगल रही हों। ऐसे में रात को 12 बजे भी नींद आने का नाम नहीं ले रही थी। पंखे ओर कूलर तो जैसे हवा की जगह आग उगल रहे हों। ऐसे में आंखों में नींद आने का नाम नहीं ले रही थी। उसने अपनी टेबल लैम्प का स्विच ऑफ किया और चेयर को पीछे को धकेल कर बालकनी पर आकर चहल-कदमी करने लगा। ...Read More

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फ़ैसला - 2

डाक्टर साहब के नौकर ने दौड़कर गेट खोला और कार ने उनके घर में प्रवेश किया। कार का दरवाजा सिद्धेश ने नीचे उतरते ही नौकर से पूछने लगा। अरे! डाक्टर साहब अन्दर हैं। हां साहब। साहब अन्दर ही है। ऐसा नौकर ने जवाब दिया। फिर क्या था वह हमेशा की तरह धड़धड़ाते हुए ड्राइंग रूप में दाखि हो गया। बैग सोफे के सामने रखी मेज पर रख कर खुद सोफे पर बैठ गया। तभी कुछ देर में पानी का गिलास ट्रे में लिए नौकर आया। उसने वह ट्रे मेज पर रख दी और किचन की ओर चला गया। उसी समय अन्दर कमरे से डाक्टर केडी अपने बालों को तौलिए से सुखाते हुए ड्रांइग रूम में आ गये। वे अभी कुछ देर पहले ही स्नान कर चुके थे। अन्दर आते ही डाक्टर केडी मज़ाक के अंदाज में बोले - ...Read More

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फ़ैसला - 3

उसके बाद तो उन घर की चाभियों ने तो मेरी जिन्दगी ही बदल दी। अब मैं बेटी से बहू के इस दौर से गुजर रही थी। जहां पर स्त्री को मानसिक और शारीरिक अनेकों झंझावतों का सामना करना पड़ता है। लेकिन इन सबके बाद भी अपने परिवार और कुल की परम्पराओं और जिम्मेदारियों को पूरी ईमानदारी के साथ निभाना पड़ता है। फिर तो शादी के बाद मैं मात्र एकबार अपने अम्मा-पिताजी के घर गांव जा पायी। अम्मा भी मेरी जिम्मेदारियों को समझते हुए मुझे गावं बुलाने की जिद नहीं करती थीं। उनको पता था कि मेरी बेटी ससुराल में अकेली है इस लिए उसका रहना वहां अधिक जरूरी है। अगर सास या ननद होती तो बात ही और होती। जिम्मेदारियां थोड़ी-बहुत तो बंट ही जातीं। यही सब सोचकर मां ने भी समय से समझौता कर लिया था। मेरी क्या? मैं तो अब ससुराल की होकर रह गयी। लेकिन मेरा मन अब पति और ससुरजी की सेवा तथा घर के कामकाज में रमने लगा था। मेरी तो बस ससुराल ही दुनिया थी। ...Read More

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फ़ैसला - 4

आज अभय ने मेरी बात को घुमाया नहीं बल्कि सच बताने की कोशिश कर रहा था। क्योंकि इस समय शराब के नशे में था और जहां तक मैंने सुना कि आदमी शराब के नशे में सच बोलता है। उसने बताया कि कुछ महीने पहले एक आदमी से मेरी मुलाकात हुई, यह छोटी सी मुलाकात धीरे-धीरे मित्रता में दबल गयी। वह बहुत बड़ा आदमी है उसके दो-दो गैराज चजते हैं। उसका नाम मयंक सिंह है। उसका एक गैराज तो सीतापुर रोड पर ही है। धीरे-धीरे मेरी दुकान से आटो पार्ट मंगाना शुरू किया और आज उसी के कारण रोज अच्छी खासी बिक्री हो जाती है, उसी के द्वारा और कई गैराजों में आटो पार्ट की सप्लाई मैंने शुरू कर दी है तभी तो मैं अपनी दूसरी दुकान भी खोलने जा रहा हूँ। वह अक्सर शाम को मेरी दुकान पर आ जाता है। वहीं दुकान के बाहर बैठक भी जम जाती है, फिर पीने -पिलाने का दौर शुरू होता है। ...Read More

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फ़ैसला - 5

सुगन्धा ने अपने का सिद्धेश की बांहों से छुड़ाते हुए कहा कि इस तरह का जीवन जीते हुए लगभग दो महीने बीत ही रहे थी कि एक दिन उसी अभय ने निर्लज्जता और नीचता की सारी हदें पर कर दीं। वह शाम को लगभग 8 बजे अपने उसी दोस्त मयंक के साथ शराब की बोतलें लिए हुए घर आया। उन दोनों के साथ में एक लड़की भी थी। वह सभी आकर बरामदे में रखी चेयरों पर बैठ गये। फिर क्या था! अभय ने मुझ पर आर्डर जमाना शुरू किया। मैं भी पानी, गिलास और प्लेंटे किचन से उठाकार उन लोगों के सामने रखी मेज पर रख दिया। ...Read More

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फ़ैसला - 6

मैंने जैसे ही लेटने के लिए बेटी को एक ओर बिस्तर पर खिसकाना चाहा, कि उसी क्षण अभय लड़खड़ाते कमरे में दाखिल हुआ। उसे देखते ही मेरे अंदर भरा गुस्से का लावा बाहर फूट पड़ा। मैं घायल शेरनी की तरह उस पर टूट पड़ी। उसके शर्ट के कॉलर को पकड़ कर मैं लगभग लटक गयी। वह कितना भी नशे में था। लेकिन एक पुरूष और एक स्त्री की ताकत में अन्तर होता है। उसने अपने दोनों हाथों से छुड़ाकर मुझको फर्श पर फेंक दिया। उसके बाद भी मैं दौड़कर उससे लिपटकर नोचने लगी। बार-बार मैं एक ही शब्द दोहरा रही थी कि तुम औरत के दलाल हो। तुमको मैं अपना पति कहूं - छिः ... छिः ...। ...Read More

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फ़ैसला - 7

फ़ैसला (7) आंख खुली तो फिर दूसरे दिन की सुबह, भास्कर देव नीले आसमान में अपनी स्वर्णिम आभा बिखेरते एक किरण को शायद आदेशित उन्होंने ही किया होगा। तभी तो वह मेरे कमरे की खिड़की के दराज के रास्ते मुझ तक पहुंच गयी और मुझे नींद से जगा दिया। मैंने अपनी आंखें मलते हुए भास्कर देव को बैठे ही बैठे प्रणाम किया और मन ही मन प्रार्थना की कि हे! अन्धकार को दूर करने की असीम क्षमता वाले भगवान भास्कर क्या आप मेरे पित कहलाने वाले इस पुरुष के शरीर में व्याप्त दुर्गुणों को दूर नहीं कर सकते हो। ...Read More

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फ़ैसला - 8

फ़ैसला (8) आज सबेरे ही मुझे बहुत अजीब लग रहा था। दिल में रह रहकर घबड़ाहट होने लगती थी। होने पर सीना पकड़ कर जब मैं बैठ जाती तो बेटी आस्था दौड़ते हुए आती क्या हुआ मम्मी...!कहती । उसके इतना कहते ही मेरा कष्ट अपने आप कम हो जाता था। और मैं बेटी को अपने सीने से चिपका लेती। वह अपने छोटे-छोटे हाथों से मेरे गालों पर ढुलक आए आंसुओं को पोंछ रही थी। उसके ऐसा करते ही मेरा हृदय द्रवित हो आया था। बरबस ही मेरे ओंठ बेटी का चुम्बन करने लगे थे। आज बेटी आस्था के ऊपर ...Read More

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फ़ैसला - 9

फ़ैसला (9) देर रात में सोने के बाद भी सिद्धेश सबेरे 8 बजे ही उठ गया। उसने सबसे पहले के कमरे को जाकर देखा। वह नहाकर आते हुए उसे दिख गयी। फिर वह अपने कमरे में आकर डा. के.डी. को फोन मिलाने लग गया। कई बार तो फोन इंगेज जा रहा था। लेकिन डा. के.डी. को यह बताना आवश्यक था कि सुगन्धा की जो मनोस्थिति हुई इसका कारण क्या था। कुछ देर बाद काफी प्रयासों के डा. के.डी. का फोन मिल गया। फिर सिद्धेश ने सुगन्धा का अतीत डा. के.डी. को बताया। दोनों की आपसी बातचीत से यही निष्कर्ष ...Read More

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फ़ैसला - 10

फ़ैसला (10) इस तरह से धीरे-धीरे दो दिन का समय भी बीत गया। सबेरे-सबेरे ही उठकर सिद्धेश ने एडवोकेट और अपने अभिन्न मित्र डा. के.डी. से सुगन्धा को लेकर फोन पर बात की और आपस में बातचीत करने के बाद 10 बजे का समय निश्चित कर लिया। उसके बाद उसने सुगन्धा को आवाज देकर उससे 10 बजे के पहले घर से निकलने को कह दिया। इसके बाद सिद्धेश स्वयं अपनी तैयारी में लग गया। लगभग 2 घंटे के बाद दोनों तैयार हो गये। लगभग नौ बजे सिद्धेश कार की ड्राइविंग सीट पर बैठ गया और पीछे की सीट पर ...Read More

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फ़ैसला - 11

फ़ैसला (11) अगले दिन सवेरे सिद्धेश ऑफिस जाने के लिए तैयार ही हो रहा था कि अचानक किसी ने बेल बजायी। उसकी आवाज से सिद्धेश भी खिड़की से गेट की ओर झांकने लगा। तब तक भोला गेट पर पहुंच चुका था। उसने गेट खोलकर देखा तो उसे पोस्टमैने दिखाई दिया। उसने पूछा - क्या यह सिद्धेश जी का मकान है। वे यहीं पर रहते हैं? उसके इस प्रकार पूंछने पर भोला मन ही मन बुद-बुदाने लगा। लगता है कोई नया निठल्लू आ गया है जो कि सिद्धेश बाबू के बारे में इस तरह पूंछताछ कर रहा है। भला उनको ...Read More

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फ़ैसला - 12

फ़ैसला (12) आज वह दिन आ गया जब उसे खन्ना जी के कोर्ट जाना था। सिद्धेश ने सबेरे ही फोन करके याद दिला दिया। फिर नौ बजे घर से निकलने के लिए तैयार हो गया। उसके घर से निकलने के समय फिर सुगन्धा सिद्धेश की ओर प्रश्नवाचक मुद्रा में देखा लेकिन बोली कुछ नहीं। सिद्धेश भी इस बात को समझ गया कि यह कुछ पूंछना चाहती है परन्तु उसको अधिक महत्व न देते हुए वह शीघ्रता से कार के पास पहुंच गया। प्रतिदिन की तरह भोला ने उसका बैग लाकर गाड़ी में रखा इसके बाद वह कोर्ट के लिए ...Read More

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फ़ैसला - 13

फ़ैसला (13) खिड़की पर आकर बैठी चिड़ियों की चहचहाट से नींद खुल गयीं तो देखा कि भगवान भास्कर की प्रकाश किरण खिड़की के रास्ते कमरे तक आ गयी है। सिद्धेश ने तुरन्त बिस्तर छोड़ नित्य क्रिया से निवृत होने अटैच बाथरूम में चला। कुछ देर बाद बाहर निकल कर न्यूज देखने के लिए टीवी आन कर दी और सोफे पर नाइट सूट में ही बैठ गया। वह ऐसे बैठा था कि जैसे कल जो हुआ उसे वह भूल चुका है। परन्तु ऐसा था नहीं। उसी समय चाय की ट्रे हाथ में लिए भोला ने कमरे में प्रवेश किया। उसे ...Read More

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फ़ैसला - 14 - अंतिम भाग

फ़ैसला (14) आज शायद इस मुकदमे का आखिरी दिन हो। यही बैठे-बैठे कमरें मंे सिद्धेश सोच ही रहा था अचानक उसका मोबाइल बजा। उसने उठाकर देखा तो डा. के.डी. लाइन पर थे। हैलो ! डा. साहब! सिद्धेश बोल पड़ा। हां-हां! सिद्धेश मैं डा. के.डी. बोल रहा हूं और बताइये क्या हाल हैं। सुगन्धा कैसी है। वह ठीक तो है ना। अरे डाक्टर साहब! सब ठीक है और सुगन्धा भी। अब तो उसका केस भी आपके सहयोग के कारण निर्णायक स्थिति में आ गया है। आज ही तो उसका फैसला होना है। देखो क्या होता है। सिद्धेश ने कहा। होना ...Read More