मियाँ शहसवार का दिल दुनिया से तो गिर गया था, मगर जोगिन की उठती जवानी देख कर धुन समाई कि इसको निकाह में लावें। उधर जोगिन ने ठान ली थी कि उम्र भर शादी न करूँगी। जिसके लिए जोगिन हुई, उसी की मुहब्बत का दम भरूँगी। एक दिन शहसवार ने जो सुना कि सिपहआरा कोठे पर से कूद पड़ी, तो दिल बेअख्तियार हो गया। चल खड़े हुए कि देखें, माजरा क्या है? रास्ते में एक मुंशी से मुलाकात हो गई। दोनों आदमी साथ-साथ बैठे और साथ ही साथ उतरे। इत्तफाक से रेल से उतरते ही मुंशी जी को हैजा हो गया। देखते-देखते चल बसे। शहसवार ने जो देखा कि मुंशी के पास दौलत काफी है, तो फौरन उनके बेटे बन गए और सारा माल असबाब ले कर चंपत हो गए। सात हजार की अशर्फियाँ, दस हजार के नोट और कई सौ रुपए हाथ आए। रईस बन बैठे। फौरन जोगिन के पास लौट गए।
Full Novel
आजाद-कथा - खंड 2 - 60
मियाँ शहसवार का दिल दुनिया से तो गिर गया था, मगर जोगिन की उठती जवानी देख कर धुन समाई इसको निकाह में लावें। उधर जोगिन ने ठान ली थी कि उम्र भर शादी न करूँगी। जिसके लिए जोगिन हुई, उसी की मुहब्बत का दम भरूँगी। एक दिन शहसवार ने जो सुना कि सिपहआरा कोठे पर से कूद पड़ी, तो दिल बेअख्तियार हो गया। चल खड़े हुए कि देखें, माजरा क्या है? रास्ते में एक मुंशी से मुलाकात हो गई। दोनों आदमी साथ-साथ बैठे और साथ ही साथ उतरे। इत्तफाक से रेल से उतरते ही मुंशी जी को हैजा हो गया। देखते-देखते चल बसे। शहसवार ने जो देखा कि मुंशी के पास दौलत काफी है, तो फौरन उनके बेटे बन गए और सारा माल असबाब ले कर चंपत हो गए। सात हजार की अशर्फियाँ, दस हजार के नोट और कई सौ रुपए हाथ आए। रईस बन बैठे। फौरन जोगिन के पास लौट गए। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 61
कैदखाने से छूटने के बाद मियाँ आजाद को रिसाले में एक ओहदा मिल गया। मगर अब मुश्किल यह पड़ी आजाद के पास रुपए न थे। दस हजार रुपए के बगैर तैयारी मुश्किल। अजनबी आदमी, पराया मुल्क, इतने रुपयों का इंतजाम करना आसान न था। इस फिक्र में मियाँ आजाद कई दिन तक गोते खाते रहे। आखिर यही सोचा कि यहाँ कोई नौकरी कर लें और रुपए जमा हो जाने के बाद फौज में जायँ। मन मारे बैठे थे कि मीडा आ कर कुर्सी पर बैठ गई। जिस तपाक के साथ आजाद रोज पेश आया करते थे, उसका आज पता न था! चकरा कर बोली - उदास क्यों हो! मैं तो तुम्हें मुबारकबाद देने आई थी। यह उल्टी बात कैसी? ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 62
जोगिन शहसवार से जान बचा कर भागी, तो रास्ते में एक वकील साहब मिले। उसे अकेले देखा, तो छेड़ने सूझी। बोले - हुजूर को आदाब। आप इस अँधेरी रात में अकेले कहाँ जाती हैं? जोगिन - हमें न छे़ड़िए। वकील - शाहजादी हो? नवाबजादी हो? आखिर हो कौन? जोगिन - गरीबजादी हूँ। वकील - लेकिन आवारा। जोगिन - जैसा आप समझिए। वकील - मुझे डर लगता है कि तुम्हें अकेला पा कर कोई दिक न करे। मेरा मकान करीब है, वहीं चल कर आराम से रहो। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 63
जमाना भी गिरगिट की तरह रंग बदलता है। वही अलारक्खी जो इधर-उधर ठोकरें खाती-फिरती थी, जो जोगिन बनी हुई गाँव में पड़ी थी, आज सुरैया बेगम बनी हुई सरकस के तमाशे में बड़े ठाट से बैठी हुई है। यह सब रुपए का खेल है। सुरैया बेगम - क्यों महरी, रोशनी काहे की है? न लैंप, न झाड़, न कँवल और सारा खेमा जगमगा रहा है। महरी - हुजूर, अक्ल काम नहीं करती, जादू का खेल है। बस, दो अंगारे जला दिए और दुनिया भर जगमगाने लगी। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 64
सुरैया बेगम मियाँ आजाद की जुदाई में बहुत देर तक रोया कीं, कभी दारोगा पर झल्लाईं, कभी अब्बासी पर फिर सोचतीं कि अलारक्खी के नाम से नाहक बुलवाया, बड़ी भूल हो गई कभी खयाल करतीं की वादे के सच्चे हैं। कल शाम को जरूर आएँगे, हजार काम छोड़के आएँगे। रात भींग गई थी, महरियाँ सो रही थीं, महलदार ऊँघता था, शहर-भर में सन्नाटा था मगर सुरैया बेगम की नींद मियाँ आजाद ने हराम कर दी थी - ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 65
हमारे मियाँ आजाद और इस मिरजा आजाद में नाम के सिवा और कोई बात नहीं मिलती थी। वह जितने दिलेर, ईमानदार, सच्चे आदमी थे उतने ही यह फरेबी, जालिए और बदनियत थे। बहुत मालदार तो थे नहीं मगर सवा सौ रुपए वसीके के मिलते थे। अकेला दम, न कोई अजीज, न रिश्तेदार पल्ले सिरे के बदमाश, चोरों के पीर, उठाईगीरों के लँगोटिए यार, डाकुओं के दोस्त, गिरहकटों के साथी। किसी की जान लेना इनके बाएँ हाथ का करतब था। जिससे दोस्ती की, उसी की गरदन काटी। अमीर से मिल-जुल कर रहना और उसकी घुड़की-झिड़की सहना, इनका खास पेशा था। लेकिन जिसके यहाँ दखल पाया, उसको या तो लँगोटी बँधवा दी या कुछ ले-दे के अलग हुए। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 66
शाहजादा हुमायूँ फिर कई महीने तक नेपाल की तराई में शिकार खेल कर लौटे तो हुस्नआरा की महरी अब्बासी बुलवा भेजा। अब्बासी ने शाहजादा के आने की खबर सुनी तो चमकती हुई आई। शाहजादे ने देखा तो फड़क गए। बोले - आइए, बी महरी साहबा हुस्नआरा बेगम का मिजाज तो अच्छा है? अब्बासी - हाँ, हुजूर! ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 67
सुरैया बेगम ने आजाद मिरजा के कैद होने की खबर सुनी तो दिल पर बिजली सी गिर पड़ी। पहले यकीन न आया, मगर जब खबर सच्ची निकली तो हाय-हाय करने लगी। अब्बासी - हुजूर, कुछ समझ में नहीं आया। मगर उनके एक अजीज हैं। वह पैरवी करने वाले हैं। रुपए भी खर्च करेंगे। सुरैया बेगम - रुपया निगोड़ा क्या चीज है। तुम जा कर कहो कि जितने रुपयों की जरुरत हो, हमसे लें। अब्बासी आजाद मिरजा के चाचा के पास जा कर बोली - बेगम साहब ने मुझे आपके पास भेजा है और कहा है कि रुपए की जरूरत हो तो हम हाजिर हैं। जितने रुपए कहिए, भेज दें। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 68
आजाद अपनी फौज के साथ एक मैदान में पड़े हुए थे कि एक सवार ने फौज में आ कर - अभी बिगुल दो। दुश्मन सिर पर आ पहुँचा। बिगुल की आवाज सुनते ही अफसर, प्यादे, सवार सब चौंक पड़े। सवार ऐंठते हुए चले, प्यादे अकड़ते हुए बढ़े। एक बोला - मार लिया है। दूसरे ने कहा - भगा दिया है। मगर अभी तक किसी को मालूम नहीं कि दुश्मन कहाँ है। मुखबिर दौड़ाए गए तो पता चला कि रूस की फौज दरिया के उस पार पैर जमाए खड़ी है। दरिया पर पुल बनाया जा रहा है और अनोखी बात यह थी कि रूसी फौज के साथ एक लेडी, शहसवारों की तरह रान-पटरी जमाए, कमर से तलवार लटकाए, चेहरे पर नकाब से छिपाए, अजब शोखी और बाँकपन के साथ लड़ाई में शरीक होने के लिए आई है। उसके साथ दस जवान औरतें घोड़ों पर सवार चली आ रही हैं। मुखबिर ने इन औरतें की कुछ ऐसी तारीफ की कि लोग सुन कर दंग रह गए। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 69
दूसरे दिन आजाद का उस रूसी नाजनीन से मुकाबिला था। आजाद को रातभर नींद नहीं आई। सवेरे उठ कर आए तो देखा कि दोनों तरफ की फौजें आमने-सामने खड़ी हैं और दोनों तरफ से तोपें चल रही हैं। खोजी दूर से एक ऊँचे दरख्त की शाख पर बैठे लड़ाई का रंग देख रहे थे और चिल्ला रहे थे, होशियार, होशियार! यारों, कुछ खबर भी है? हाय! इस वक्त अगर तोड़ेदार बंदूक होती तो परे के परे साफ कर देता। इतने में आजाद पाशा ने देखा कि रूसी फौज के सामने एक हसीना कमर में तलवार लटकाए, हाथ में नेजा लिए, घोड़े पर शान से बैठी सिपाहियों को आगे बढ़ने के लिए ललकार रही है। आजाद की उस पर निगाह पड़ी तो दिल में सोचे, खुदा इसे बुरी नजर से बचाए। यह तो इस काबिल है कि इसकी पूजा करे। यह, और मैदान जंग! हाय-हाय, ऐसा न हो कि उस पर किसी का हाथ पड़ जाय। गजब की चीज है यह हुस्न, इंसान लाख चाहता है, मगर दिल खिंच ही जाता है, तबीयत आ ही जाती है। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 70
शाम के वक्त हलकी-फुलकी और साफ-सुथरी छोलदारी में मिस क्लारिसा बनाव-चुनाव करके एक नाजुक आराम-कुर्सी पर बैठी थी। चाँदनी हुई थी, पेड़ और पत्ते दूध में नहाये हुए और हवा आहिस्ता-आहिस्ता चल रही थी! उधर मियाँ आजाद कैद में पड़े हुए हुस्नआरा को याद करके सिर धुनते थे कि एक आदमी ने आ कर कहा - चलिए, आपको मिस साहब बुलाती हैं। आजाद छोलदारी के करीब पहुँचे तो सोचने लगे, देखें यह किस तरह पेश आती है। मगर कहीं साइबेरिया भेज दिया तो बेमौत ही मर जाएँगे। अंदर जा कर सलाम किया और हाथ बाँध कर खड़े हो गए। क्लारिसा ने तीखी चितवन कर कहा - कहिए मिजाज ठंडा हुआ या नहीं? ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 71
आजाद तो साइबेरिया की तरफ रवाना हुए, इधर खोजी ने दरख्त पर बैठे-बैठे अफीम की डिबिया निकाली। वहाँ पानी एक आदमी दरख्त के नीचे बैठा था। आपने उससे कहा - भाईजान, जरा पानी पिला दो। उसने ऊपर देखा, तो एक बौना बैठा हुआ है। बोला - तुम कौन हो? दिल्लगी यह हुई कि वह फ्रांसीसी था। खोजी उर्दू में बात करते थे, वह फ्रांसीसी में जवाब देता था। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 72
बड़ी बेगम का बाग परीखाना बना हुआ है। चारों बहनें रविशों में अठखेलियाँ करती हैं। नाजो-अदा से तौल-तौल कर धरती हैं। अब्बासी फूल तोड़-तोड़ कर झोलियाँ भर रही है। इतने में सिपहआरा ने शोखी के साथ गुलाब का फूल तोड़ कर गेतीआरा की तरफ फेंका। गेतीआरा ने उछाला तो सिपहआरा की जुल्फ को छूता हुआ नीचे गिरा। हुस्नआरा ने कई फूल तोड़े और जहाँनारा बेगम से गेंद खेलने लगीं। जिस वक्त गेंद फेंकने के लिए हाथ उठाती थीं, सितम ढाती थीं। वह कमर का लचकाना और गेसू का बिखरना, प्यारे-प्यारे हाथों की लोच और मुसकिरा-मुसकिरा कर निशाने बाजी करना अजब लुत्फ दिखाता था। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 73
कोठे पर चौका बिछा है और एक नाजुक पलंग पर सुरैया बेगम सादी और हलकी पोशाक पहने आराम से हैं। अभी हम्माम से आई हैं। कपड़े इत्र में बसे हुए हैं। इधर-उधर फूलों के हार और गजरे रखे हैं, ठंडी-ठंडी हवा चल रही है। मगर तब भी महरी पंखा लिए खड़ी है। इतने में एक महरी ने आ कर कहा - दारोगा जी हुजूर से कुछ अर्ज करना चाहते हैं। बेगम साहब ने कहा - अब इस वक्त कौन उठे। कहो, सुबह को आएँ। महरी बोली - हुजूर कहते हैं, बड़ा जरूरी काम है। हुक्म हुआ कि दो औरतें चादर ताने रहें और दारोगा साहब चादर के उस पार बैठें। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 74
खोजी आजाद के बाप बन गए तो उनकी इज्जत होने लगी। तुर्की कैदी हरदम उनकी खिदमत करने को मुस्तैद थे। एक दिन एक रूसी फौजी अफसर ने उनकी अनोखी सूरत और माशे-माशे भर के हाथ-पाँव देखे तो जी चाहा कि इनसे बातें करें। एक फारसीदाँ तुर्क को मुतरज्जिम बना कर ख्वाजा साहब से बातें करने लगा। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 75
मियाँ आजाद कासकों के साथ साइबेरिया चले जा रहे थे। कई दिन के बाद वह डैन्यूब नदी के किनारे पहुँचे। वहाँ उनकी तबीयत इतनी खुश हुई कि हरी-हरी दूब पर लेट गए और बड़ी हसरत से यह गजल पढ़ने लगे - ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 76
आजाद को साइबेरिया भेज कर मिस क्लारिसा अपने वतन को रवाना हुई और रास्ते में एक नदी के किनारे किया। वहाँ की आब-हवा उसको ऐसी पसंद आई कि कई दिन तक उसी पड़ाव पर शिकार खेलती रही। एक दिन मिस-कलरिसा ने सुबह को देखा कि उसके खेमे के सामने एक दूसरा बहुत बड़ा खेमा खड़ा हुआ है। हैरत हुई कि या खुदा, यह किसका सामान है। आधी रात तक सन्नाटा था, एकाएक खेमे कहाँ से आ गए! एक औरत को भेजा कि जा कर पता लगाए कि ये कौन लोग है। वह औरत जो खेमे में गई तो क्या देखती है कि एक जवाहिरनिगार तख्त पर एक हूरों को शरमाने वाली शाहजादी बैठी हुई है। देखते ही दंग हो गई। जा कर मिस क्लारिसा से बोली - हुजूर, कुछ न पूछिए, जो कुछ देखा, अगर ख्वाब नहीं तो जादू जरूर है। ऐसी औरत देखी कि परी भी उसकी बलाएँ ले। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 77
जिस वक्त खोजी ने पहला गोता खाया तो ऐसे उलझे कि उभरना मुश्किल हो गया। मगर थोड़ी ही देर तुर्कों ने गोते लगा कर इन्हें ढूँढ़ निकाला। आप किसी कदर पानी पी गए थे। बहुत देर तक तो होश ही ठिकाने न थे। जब जरा होश आया तो सबको एक सिरे से गालियाँ देना शुरू कीं। सोचे कि दो-एक रोज में जरा टाँठा हो लूँ तो इनसे खूब समझूँ। डेरे पर आ कर आजाद के नाम खत लिखने लगे। उनसे एक आदमी ने कह दिया था कि अगर किसी आदमी के नाम खत भेजना हो और पता न मिलता हो तो खत को पत्तों में लपेट दरिया कि किनारे खड़ा हो और तीन बार 'भेजो-भेजो' कह कर खत को दरिया में डाल दे, खत आप ही आप पहुँच जायगा। खोजी के दिल में यह बात बैठ गई। आजाद के नाम एक खत लिख कर दरिया में डाल आए। उस खत में आपने बहादुरी के कामों की खूब डींगे मारी थीं। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 78
खोजी थे तो मसखरे, मगर वफादार थे। उन्हें हमेशा आजाद की धुन सवार रहती थी। बराबर याद किया करते जब उन्हें मालूम हुआ कि आजाद को पोलैंड की शाहजादी ने कैद कर दिया है तो वह आजाद को खोजने निकले। पूछते-पूछते किसी तरह आजाद के कैदखाने तक पहुँच ही तो गए। आजाद ने उन्हें देखते ही गोद में उठा लिया। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 79
इन दोनों शाहजादों में एक का नाम मिस्टर क्लार्क था और दूसरे का हेनरी! दोनों की उठती जवानी थी। खूबसूरत। शाहजादी दिन के दिन उन्हीं के पास बैठी रहती, उनकी बातें सुनने से उसका जी न भरता था। मियाँ आजाद तो मारे जलन के अपने महल से निकलते ही न थे। मगर खोजी टोह लेने के लिए दिन में कई बार यहाँ आ बैठते थे। उन दोनों को भी खोजी की बातों में बड़ा मजा आता। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 80
उधर आजाद जब फौज से गायब हुए तो चारों तरफ उनकी तलाश होने लगी। दो सिपाही घूमते-घामते शाहजादी के की तरफ आ निकले। इत्तिफाक से खोजी भी अफीम की तलाश में घूम रहे थे। उन दोनों सिपाहियों ने खोजी को आजाद के साथ पहले देखा था। खोजी को देखते ही पकड़ लिया और आजाद का पता पूछने लगे। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 81
एक दिन दो घड़ी दिन रहे चारों परियाँ बनाव-चुनाव हँस-खेल रही थीं। सिपहआरा का दुपट्टा हवा के झोंकों से जाता था। जहाँनारा मोतिये के इत्र में बसी थीं। गेतीआरा का स्याह रेशमी दुपट्टा खूब खिल रहा था। हुस्नआरा - बहन, यह गरमी के दिन और काला रेशमी दुपट्टा! अब कहने से तो बुरा मानिएगा, जहाँनारा बहन निखरें तो आज दूल्हा भाई आने वाले हैं यह आपने रेशमी दुपट्टा क्या समझ के फड़काया! ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 82
सुरैया बेगम चोरी के बाद बहुत गमगीन रहने लगीं। एक दिन अब्बासी से बोलीं - अब्बासी, दिल को जरा नहीं होती अब हम समझ गए कि जो बात हमारे दिल में है वह हासिल न होगी। शीशा हाथ आया न हमने कोई सागर पाया साकिया ले तेरी महफिल से चले भर पाया। सारी खुदाई में हमारा कोई नहीं। अब्बासी ने कहा - बीबी, आज तक मेरी समझ में न आया कि वह, जिसके लिए आप रोया करती हैं, कौन हैं? और यह जो आजाद आए थे, यह कौन हैं। एक दिन बाँकी औरत के भेष में आए, एक दिन गोसाई बनके आए। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 83
शाहजादा हुमायूँ फर भी शादी की तैयारियाँ करने लगे। सौदागरों की कोठियों में जा-जा कर सामान खरीदना शुरू किया। दिन एक नवाब साहब से मुलाकात हो गई। बोले - क्यों हजरत, यह तैयारियाँ! शाहजादा - आपके मारे कोई सौदा न खरीदे? नवाब - जनाब, चितवनों से ताड़ जाना कोई हमसे सीख जाय। शाहजादा - आपको यकीन ही न आए तो क्या इलाज? ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 84
इधर बड़ी बेगम के यहाँ शादी की तैयारियाँ हो रही थीं, डोमिनियों का गाना हो रहा था। उधर शाहजादा फर एक दिन दरिया की सैर करने गए। घटा छाई हुई थी। हवा जोरों के साथ चल रही थी। शाम होते-होते आँधी आ गई और किश्ती दरिया में चक्कर खा कर डूब गई। मल्लाह ने किश्ती के बचाने की बहुत कोशिश की, मगर मौत से किसी का क्या बस चलता है। घर पर यह खबर आई तो कुहराम मच गया। अभी कल की बात है कि दरवाज पर भाँड़ मुबारकबाद गा रहे थे, आज बैन हो रहा है, कल हुमायूँ फर जामे में फूले नहीं समाते थे कि दूल्हा बनेंगे, आज दरिया में गोते खाते हैं। किसी तरफ से आवाज आती है - हाय मेरे बच्चे! कोई कहता है - हैं, मेरे लाला को क्या हुआ! रोने वाला घर भर और समझाने वाला कोई नहीं। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 85
एक पुरानी, मगर उजाड़ बस्ती में कुछ दिनों से दो औरतों ने रहना शुरू किया है। एक का नाम है, दूसरी का फारखुंदा। इस गाँव में कोई डेढ़ हजार घर आबाद होंगे, मगर उन सब में दो ठाकुरों के मकान आलीशान थे। फिरोजा का मकान छोटा था, मगर बहुत खुशनुमा। वह जवान औरत थी, कपड़ेलत्ते भी साफ-सुथरे पहनती थी, लेकिन उसकी बातचीत से उदासी पाई जाती थी। फरखुंदा इतनी हसीन तो न थी, मगर खुशमिजाज थी। गाँववालों को हैरत थी कि यह दोनों औरतें इस गाँव में कैसे आ गईं और कोई मर्द भी साथ नहीं! उनके बारे में लोग तरह-तरह की बातें किया करते थे। गाँव की सिर्फ दो औरतें उनके पास जाती थीं, एक तंबोलिन, दूसरी बेलदारिन। यार लोग टोह में थे कि यहाँ का कुछ भेद खुले, मगर कुछ पता न चलता था। तंबोलिन और बेलदारिन से पूछते थे तो वह भी आँय-बाँय-साँय उड़ा देती थीं। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 86
फीरोजा बेगम और फरखुंदा रात के वक्त सो रही थीं कि धमाके की आवाज हुई फरखुंदा की आँख खुल यह धमाका कैसा? मुँह पर से चादर उठाई, मगर अँधेरा देख कर उठने की हिम्मत न पड़ी। इतने में पाँव की आहट मिली, रोएँ खड़े हो गए। सोची, अगर बोली तो यह सब हलाल कर डालेंगे। दबकी पड़ी रही। चोर ने उसे गोद में उठाया और बाहर ले जा कर बोला - सुनो अब्बासी, हमको तुम खूब पहचानती हो? अगर न पहचान सकी हो, तो अब पहचान लो। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 87
खाँ साहब पर मुकदमा तो दायर ही हो गया था उस पर दारोगा जी दुश्मन थे। दो साल सजा हो गई। तब दारोगा जी ने एक औरत को सुरैया बेगम के मकान पर भेजा। औरत ने आ कर सलाम किया और बैठ गई। सुरैया - कौन हो? कुछ काम है यहाँ? औरत - ऐ हुजूर, भला बगैर काम के कोई भी किसी के यहाँ जाता है? हुजूर से कुछ कहना है, आपके हुस्न का दूर-दूर तक शोहरा है। इसका क्या सबब है कि हुजूर इस उम्र में, इस हालत में जिंदगी बसर करती हैं? ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 88
आध कोस चलने के बाद इन चोरों ने सुरैया बेगम को दो और चोरों के हवाले किया। इनमें एक नाम बुधसिंह था, दूसरे का हुलास। यह दोनों डाकू दूर-दूर तक मशहूर थे, अच्छे-अच्छे डकैत उनके नाम सुन कर अपने कान पकड़ते थे। किसी आदमी की जान लेना उनके लिए दिल्लगी थी। सुरैया बेगम काँप रही थी कि देखें आबरू बचती है या नहीं। हुलास बोला, कहो बुद्धसिंह, अब क्या करना चाहिए? ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 89
सुरैया बेगम ने अब थानेदार के साथ रहना मुनासिब न समझा। रात को जब थानेदार खा पी कर लेटा सुरैया बेगम वहाँ से भागी। अभी सोच ही रही थी कि एक चौकीदार मिला। सुरैया बेगम को देख कर बोला - आप कहाँ? मैंने आपको पहचान लिया है। आप ही तो थानेदार साहब के साथ उस मकान में ठहरी थीं। मालूम होता है, रूठ कर चली आई हो। मैं खूब जानता हूँ। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 90
नेपाल की तराई में रिसायत खैरीगढ़ के पास एक लक व दक जंगल है। वहाँ कई शिकारी शेर का करने के लिए आए हुए हें। एक हाथी पर दो नौजवान बैठे हुए हैं। एक का सिन बीस-बाईस बरस का है, दूसरे का मुश्किल से अट्ठारह का। एक का नाम है वजाहत अली, दूसरे का माशूक हुसैन। वजाहत अली दोहरे बदन का मजबूत आदमी है। माशूक हुसैन दुबला-पतला छरहरा आदमी है। उसकी शक्ल-सूरत और चाल-ढाल से ऐसा मालूम होता है कि अगर इसे जनाने कपड़े पहना दिए जायँ, तो बिलकुल औरत मालूम हो। पीछे-पीछे छह हाथी और आते थे। जंगल में पहुँच कर लोगों ने हाथी रोक लिए ताकि शेर का हाल दरियाफ्त कर लिया जाय कि कहाँ है। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 91
जब रात को सब लो खा-पी कर लेटे, तो नवाब साहब ने दोनों बंगालियों को बुलाया और बोले - ने आप दोनों साहबों को बहुत बचाया, वरना शेरनी खा जाती। बोस - हम डरता नहीं थ, हम शाला ईश फील का बान को मारना चाहता था कि हम ईश देश का आदमी नहीं है। इस माफिक हमारे को डराने सकता और हाथी को बोदजाती से हिलाने माँगें। जब तो हम लोग बड़ा गुस्सा हुआ कि अरे सब लोग का हाथी हिलने नहीं माँगता, तुम क्यों हिलने माँगता है। और हमसे बोला कि बाबू शाब, अब तो मरेगा। हाथी का पाँव फिसलेगी और तुम मर जायँगे। हम बोला - अरे, जो हाथी की पाँव फिसल जायगी तो तुम शाले का शाला कहाँ बच जायगा? तुम भी तो हमारा एक साथ मरेगा। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 92
आज तो कलम की बाँछें खिली जाती हैं। नौजवानों के मिजाज की तरह अठखेलियाँ पर है। सुरैया बेगम खूब के बैठी हैं। लौंडियाँ-महरियाँ बनाव-चुनाव किए घेरे खड़ी हैं। घर में जश्न हो रहा है। न जाने सुरैया बेगम इतनी दौलत कहाँ से लाईं। यह ठाट तो पहले भी नहीं था। महरी - ऐ बी सैदानी, आज तो मिजाज ही नहीं मिलते। इस गुलाबी जोड़े पर इतना इतरा गईं? सैदानी - हाँ, कभी बाबराज काहे को पहना था? आज पहले-पहल मिला है। तुम अपने जोड़े का हाल तो कहो। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 93
सुरैया बेगम के यहाँ वही धमाचौकड़ी मची थी। परियों का झुरमुट, हसीनों का जमघट, आपस की चुहल और हँसी मकान गुलजार बना हुआ था। मजे-मजे की बातें हो रही थीं कि महरी ने आ कर कहा - हुजूर, रामनगर से असगर मियाँ की बीवी आई हैं। अभी-अभी बहली से उतरी हैं। जानी बेगम ने पूछा - असगर मियाँ कौन हैं? कोई देहाती भाई हैं? इस पर हशमत बहू ने कहा, बहन वह कोई हों। अब तो हमारे मेहमान हैं। फीरीजा बेगम बोलीं - हाँ-हाँ तमीज से बात करो, मगर वह जो आई है, उनको नाम क्या है? महरी ने आहिस्ता से कहा - फैजन। इस पर दो-तीन बेगमों ने एक दूसरे की तरफ देखा। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 94
आजाद पोलेंड की शाहजादी से रुखसत हो कर रातोंरात भागे। रास्ते में रूसियों की कई फौजें मिलीं। आजाद को करने की जोरों से कोशिश हो रही थी, मगर आजाद के साथ शाहजादी का जो आदमी था वह उन्हें सिपाहियों की नजरें बचा कर ऐसे अनजान रास्तों से ले गया कि किसी को खबर तक न हुई। दोनों आदमी रात को चलते थे और दिन को कहीं छिप कर पड़ रहते थे। एक हफ्ते तक भागा-भाग चलने के बाद आजाद पिलौना पहुँच गए। इस मुकाम को रूसी फौजों ने चारों तरफ से घेर लिया था। आजाद के आने की खबर सुनते ही पिलौने वालों ने कई हजार सवार रवाना किए कि आजाद को रूसी फौजों से बचा कर निकाल लाएँ। शाम होते-होते आजाद पिलौनावालों से जा मिले। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 95
जिस दिन आजाद कुस्तुनतुनिया पहुँचे, उनकी बड़ी इज्जत हुई। बादशाह ने उनकी दावत की और उन्हें पाशा का खिताब शाम का आजाद होटल में पहुँचे और घोड़े से उतरे ही थे कि यह आवाज कान में आई, भला गीदी, जाता कहाँ है। आजाद ने कहा - अरे भई, जाने दो। आजाद की आवाज सुन कर खोजी बेकरार हो गए। कमरे से बाहर आए और उनके कदमों पर टोपी रख कर कहा - आजाद, खुदा गवाह है, इस वक्त तुम्हें देख कर कलेजा ठंडा हो गया, मुँह-माँगी मुराद पाई। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 96
आजाद, मीडा, क्लारिसा और खोजी जहाज पर सवार हैं। आजाद लेडियों का दिल बहलाने के लिए लतीफें और चुटकुले रहे हैं। खोजी भी बीच-बीच में अपना जिक्र छेड़ देते हैं। खोजी - एक दिन का जिक्र है, मैं होली के दिन बाजार निकला। लोगों ने मना किया कि आज बहार न निकलिए, वरना रंग पड़ जायगा। मैं उन दिनों बिलकुल गैंडा बना हुआ था। हाथी की दुम पकड़ ली तो हुमस न सका। चें से बोल कर चाहा कि भागे, मगर क्या मजाल! जिसने देखा, दातों उँगली दबाई कि वाह पट्ठे। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 97
सुरैया बेगम का मकान परीखाना बना हुआ था। एक कमरे में वजीर डोमिनी नाच रही थी। दूसरे में शहजादी मुजरा होता था। फीरोजा - क्यों फैजन बहन, तुमको इस उजड़े हुए शहर की डोमिनियों का गाना काहे को अच्छा लगता होगा? जानी बेगम - इनके लिए देहात की मीरासिनें बुलवा दो। फैजन - हाँ, फिर देहाती तो हम हैं ही, इसका कहना क्या? इस फिकरे पर वह कहकहा पड़ा कि घर भर गूँज उठा और फैजन बहुत शरमाईं। जानी बेगम ने कहा - बस यही बात तो हमें अच्छी नहीं लगती। एक तो बेचारी इतनी देर के बाद बोलीं, उस पर भी सबने मिल कर उनको बना डाला। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 98
शाहजादा हुमायूँ फर की मौत जिसने सुनी, कलेजा हाथों से थाम लिया। लोगों का खयाल था कि सिपहआरा यह बरदाश्त न कर सकेगी और सिसक-सिसक कर शाहजादे की याद में जान दे देगी। घर में किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि सिपहआरा को समझाए या तसकीन दे, अगर किसी ने डरते-डरते समझाया भी तो वह और रोने लगती और कहती - क्या अब तुम्हारी यह मर्जी है कि मैं रोऊँ भी न, दिल ही में घुट-घुट कर मरूँ। दो-तीन दिन तक वह कब्र पर जा कर फूल चुनती रही, कभी कब्र को चूमती, कभी खुदा से दुआ माँगती कि ऐ खुदा, शाहजादे बहादुर की सूरत दिखा दे, कभी आप ही आप मुसकिराती, कभी कब्र की चट-चट बलाएँ लेती। एक आँख से हँसती, एक आँख से रोती। चौथे दिन वह अपनी बहनों के साथ वहाँ गई। चमन में टहलते-टहलते उसे आजाद की याद आ गई। हुस्नआरा से बोली - बहन, अगर दूल्हा भाई आ जायँ तो हमारे दिल को तसकीन हो। खुदा ने चाहा तो वह दो-चार दिन में आना ही चाहते हैं। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 99
नवाब वजाहत हुसैन सुबह को जब दरबार में आए तो नींद से आँखें झुकी पड़ती थीं। दोस्तों मे जो था, नवाब साहब को देख कर पहले मुसकिराता था। नवाब साहब भी मुसकिरा देते थे। इन दोस्तों में रौनकदौला और मुबारक हुसैन बहुत बेतकल्लुफ थे। उन्होंने नवाब साहब से कहा - भाई, आज चौथी के दिन नाच न दिखाओगे? कुछ जरूरी है कि जब कोई तायफा बुलवाया जाय तो बदी ही दिल में हो? अरे साहब, गाना सुनिए, नाच देखिए, हँसिए, बोलिए, शादी को दो दिन भी नहीं हुए और हुजूर मुल्ला बन बैठे। मगर यह मौलवीपन हमारे सामने न चलने पाएगा। और दोस्तों ने भी उनकी हाँ में हाँ मिलाई। यहाँ तक कि मुबारक हुसैन जा कर कई तायफे बुला लाए, गाना होने लगा। रौनकदौला ने कहा - कोई फारसी गजल कहिए तो खूब रंग जमे। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 100
शाहजादा हुमायूँ फर के जी उठने की खबर घर-घर मशहूर हो गई। अखबारों में जिसका जिक्र होने लगा। एक ने लिखा, जो लोग इस मामले में कुछ शक करते है उन्हें सोचना चाहिए कि खुदा के लिए किसी मुर्दे को जिला देना कोई मुश्किल बात नहीं। जब उनकी माँ और बहनों को पूरा यकीन है तो फिर शक की गुंजाइश नहीं रहती। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 101
आजाद पाशा को इस्कंदरिया में कई दिन रहना पड़ा। हैजे की वजह से जहाजों का आना-जाना बंद था। एक उन्होंने खोजी से कहा - भाई, अब तो यहाँ से रिहाई पाना मुश्किल है। खोजी - खुदा का शुक्र करो कि बचके चले आए, इतनी जल्दी क्या है? आजाद - मगर यार, तुमने वहाँ नाम न किया, अफसोस की बात है। खोजी - क्या खूब, हमने नाम नहीं किया तो क्या तुमने नाम किया? आखिर आपने क्या किया, कुछ मालूम तो हो, कौन गढ़ फतह किया, कौन लड़ाई लड़े! यहाँ तो दुश्मनों को खदेड़-खदेड़ के मारा। आप बस मिसों पर आशिक हुए, और तो कुछ नहीं किया। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 102
चौथी के दिन रात को नवाब साहब ने सुरैया बेगम को छेड़ने के लिए कई बार फीरोजा बेगम की की। सुरैया बेगम बिगड़ने लगीं और बोली - अजब बेहूदा बातें हैं तुम्हारी, न जाने किन लोगों में रहे हो कि ऐसी बातें जबान से निकलती हैं। नवाब - तुम नाहक बिगड़ती हो, मैं तो सिर्फ उनके हुस्न की तारीफ करता हूँ। सुरैया - ऐ, तो कोई ढूँढ़के वैसी ही की होती। नवाब - तुम्हारे यहाँ कभी-कभी आया-जाया करती है? ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 103
कुछ दिन तो मियाँ आजाद मिस्र में इस तरह रहे जैसे और मुसाफिर रहते हैं, मगर जब कांसल को आने का हाल मालूम हुआ तो उसने उन्हें अपने यहाँ बुला कर ठहराया और बातें होने लगी। कांसल - मुझे आपसे सख्त शिकायत है कि आप यहाँ आए और हमसे न मिले। ऐसा कौन है जो आपके नाम से वाकिफ न हो, जो अखबार आता है उसमें आपका जिक्र जरूर होता है। वह आपके साथ मसखरा कौन है? वह बौना खोजी ? ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 104
आजाद बंबई से चले तो सबसे पहले जीनत और अख्तर से मुलाकात करने की याद आई। उस कस्बे में तो एक जगह मियाँ खोजी की याद आ गई। आप ही आप हँसने लगे। इत्तिफाक से एक गाड़ी पर कुछ सवारियाँ चली जाती थीं। उनमें से एक ने हँस कर कहा - वाह रे भलेमानस, क्या दिमाग पर गरमी चढ़ गई है क्या आजाद रंगीन मिजाज आदमी तो थे ही। आहिस्ता से बोले - जब ऐसी-ऐसी प्यारी सूरतें नजर आएँ तो आदमी के होश-हवास क्योंकर ठिकाने रहें। इस पर वह नाजनीन तिनक कर बोली - अरे, यह तो देखने को ही दीवाना मालूम होते थे, अपने मतलब के बड़े पक्के निकले। क्यों मियाँ, यह क्या सूरत बनाई है, आधा तीतर और आधा बटेर? खुदा ने तुमको वह चेहरा-मोहरा दिया है कि लाख दो लाख में एक हो। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 105
वहाँ दो दिन और रह कर दोनों लेडियों के साथ लखनऊ पहुँचे और उन्हें होटल में छोड़ कर नवाब के मकान पर आए। इधर वह गाड़ी से उतरे, उधर खिदमतगारों ने गुल मचाया कि खुदावंद, मुहम्मद आजाद पाशा आ गए। नवाब साहब मुसाहबों के साथ उठ खड़े हुए तो देखा कि आजाद रप-रप करते हुए तुर्की वर्दी डाटे चले आते हैं। नवाब साहब झपट कर उनके गले लिपट गए और बोले - भाईजान, आँखें तुम्हें ढूँढ़ती थीं। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 106
आजाद सुरैया बेगम की तलाश में निकले तो क्या देखते हैं कि एक बाग में कुछ लोग एक रईस सोहबत में बैठे गपें उड़ा रहे हैं। आजाद ने समझा, शायद इन लोगों से सुरैया बेगम के नवाब साहब का कुछ पता चले। आहिस्ता-आहिस्ता उनके करीब गए। आजाद को देखते ही वह रईस चौंक कर खड़ा हो गया और उनकी तरफ देख कर बोला - वल्लाह, आपसे मिलने का बहुत शौक था। शुक्र है कि घर बैठे मुराद पूरी हुई। फर्माइए, आपकी क्या खिदमत करूँ ? ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 107
मियाँ आजाद सैलानी तो थे ही, हुस्नआरा से मुलाकात करने के बदले कई दिन तक शहर में मटरगश्त करते गोया हुस्नआरा की याद ही नहीं रही। एक दिन सैर करते-करते वह एक बाग में पहुँचे और एक कुर्सी पर जा बैठे। एकाएक उनके कान में आवाज आई - ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 108
दूसरे दिन आजाद यहाँ से रुखसत हो कर हुस्नआरा से मिलने चले। बात-बात पर बाँछें खिली जाती थीं। दिमाग आसमान पर था। आज खुदा ने वह दिन दिखाया कि रूस और रूम की मंजिल पूरी करके यार के कूचे में पहुँचे। कहाँ रूस, कहाँ हिंदोस्तान! कहाँ लड़ाई का मैदान, कहाँ हुस्नआरा का मकान! दोनों लेडियों ने उन्हें छेड़ना शुरू किया - ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 109
आजाद के आने के बाद ही बड़ी बेगम ने शादी की तैयारियाँ शुरू कर दी थीं। बड़ी बेगम चाहती कि बरात खूब धूम-धाम से आए। आजाद धूम-धाम के खिलाफ थे। इस पर हुस्नआरा की बहनों में बातें होने लगीं - बहार बेगम - यह सब दिखाने की बातें हैं। किसी से दो हाथी माँगे, किसी से दो-चार घोड़े कहीं से सिपाही आए, कहीं से बरछी-बरदार! लो साहब, बरात आई है। माँगे-ताँगे की बरात से फायदा? ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 110
खोजी ने जब देखा कि आजाद की चारों तरफ तारीफ हो रही है, और हमें कोई नहीं पूछता, तो झल्लाए और कुल शहर के अफीमचियों को जमा करके उन्होंने भी जलसा किया और यों स्पीच दी - भाइयों! लोगों का खयाल है कि अफीम खा कर आदमी किसी काम का नहीं रहता। मैं कहता हूँ, बिलकुल गलत। मैंने रूम की लड़ाई में जैसे-जैसे काम किए, उन पर बड़े से बड़ा सिपाही भी नाज कर सकता है। मैंने अकेले दो-दो लाख आदमियों का मुकाबिला किया है। तोपों के सामने बेधड़क चला गया हूँ। बड़े-बड़े पहलवानों को नीचा दिखा दिया है। और मैं वह आदमी हूँ, जिसके यहाँ सत्तर पुश्तों से लोग अफीम खाते आए हैं। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 111
आज बड़ी बेगम का मकान परिस्तान बना हुआ है। जिधर देखिए, सजावट की बहार है। बेगमें धमा-चौकड़ी मचा रही - दूल्हा के यहाँ तो आज मीरासिनों की धूम है। कहाँ तो मियाँ आजाद को नाच-गाने से इतनी चिढ़ थी कि मजाल क्या, कोई डोमिनी घर के अंदर कदम रखने पाए। और आज सुनती हूँ कि तबले पर थाप पड़ रही है और गजलें, ठुमरियाँ, टप्पे गाए जाते हैं। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 2 - 112
प्रिय पाठक, शास्त्रानुसार नायक और नायिका के संयोग के साथ ही कथा का अंत हो जाता है। इसलिए हम अब लेखनी को विश्राम देते हैं। पर कदाचित कुछ पाठकों को यह जानने की इच्छा होगी कि ख्वाजा साहब का क्या हाल हुआ और मिस मीडा और मिस क्लारिसा पर क्या बीती। इन तीनों पात्रों के सिवा हमारे विचार में तो और कोई ऐसा पात्र नहीं है जिसके विषय में कुछ कहना बाकी रह गया हो। अच्छा सुनिए। मियाँ खोजी मरते दम तक आजाद के वफादार दोस्त बने रहे। अफीम की डिबिया और करौली की धुन ने कभी उनका साथ न छोड़ा। मिस मीडा औ मिस क्लारिसा ने उर्दू और हिंदी पढ़ी और दोनो थियासोफिस्ट हो गईं। ...Read More