मियाँ आजाद के बारे में, हम इतना ही जानते हैं कि वह आजाद थे। उनके खानदान का पता नहीं, गाँव-घर का पता नहीं खयाल आजाद, रंग-ढंग आजाद, लिबास आजाद दिल आजाद और मजहब भी आजाद। दिन भर जमीन के गज बने हुए इधर-उधर घूमना, जहाँ बैठना वहाँ से उठने का नाम न लेना और एक बार उठ खड़े हुए तो दिन भर मटरगश्त करते रहना उनका काम था। न घर, न द्वार कभी किसी दोस्त के यहाँ डट गए, कभी किसी हलवाई की दुकान पर अड्डा जमाया और कोई ठिकाना न मिला, तो फाका कर गए। सब गुन पूरे थे। कुश्ती में, लकड़ी-बिनवट में, गदके-फरी में, पटे-बाँक में उस्ताद। गरज, आलिमों में आलिम, शायरों में शायर, रँगीलों में रँगीले, हर फन मौला आदमी थे।
Full Novel
आजाद-कथा - खंड 1 - 1
मियाँ आजाद के बारे में, हम इतना ही जानते हैं कि वह आजाद थे। उनके खानदान का पता नहीं, का पता नहीं खयाल आजाद, रंग-ढंग आजाद, लिबास आजाद दिल आजाद और मजहब भी आजाद। दिन भर जमीन के गज बने हुए इधर-उधर घूमना, जहाँ बैठना वहाँ से उठने का नाम न लेना और एक बार उठ खड़े हुए तो दिन भर मटरगश्त करते रहना उनका काम था। न घर, न द्वार कभी किसी दोस्त के यहाँ डट गए, कभी किसी हलवाई की दुकान पर अड्डा जमाया और कोई ठिकाना न मिला, तो फाका कर गए। सब गुन पूरे थे। कुश्ती में, लकड़ी-बिनवट में, गदके-फरी में, पटे-बाँक में उस्ताद। गरज, आलिमों में आलिम, शायरों में शायर, रँगीलों में रँगीले, हर फन मौला आदमी थे। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 2
आजाद की धाक ऐसी बँधी कि नवाबों और रईसों में भी उनका जिक्र होने लगा। रईसों को मरज होता कि पहलवान, फिकैत, बिनवटिए को साथ रखें, बग्घी पर ले कर हवा खाने निकलें। एक नवाब साहब ने इनको भी बुलवाया। यह छैला बने हुए, दोहरी तलवार कमर से लगाए जा पहुँचे। देखा, नवाब साहब, अपनी माँ के लाड़ले, भोले-भाले, अँधेरे घर के उजाले, मसनद पर बैठे पेचवान गुड़गुड़ा रहे हैं। सारी उम्र महल के अंदर ही गुजरी थी, कभी घर के बाहर जाने तक की भी नौबत न आई थी, गोया बाहर कदम रखने की कसम खाई थी। दिनभर कमरे में बैठना, यारों-दोस्तों से गप्पें उड़ाना, कभी चौसर रंग जमाया, कभी बाजी लड़ी, कभी पौ पर गोट पड़ी, फिर शतरंज बिछी, मुहरे खट-खट पिटने लगे। किश्त! वह घोड़ा पीट लिया, वह प्यादा मार लिया। जब दिल घबराया, तब मदक का दम लगाया, चंडू के छींटे उड़ाए, अफीम की चुसकी ली। आजाद ने झुक कर सलाम किया। नवाब साहब खुश हो कर गले मिले, अपने करीब बिठाया और बोले - मैंने सुना है, आपने सारे शहर के बाँकों के छक्के छुड़ा दिए। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 3
नवाब साहब के दरबार में दिनोंदिन आजाद का सम्मान बढ़ने लगा। यहाँ तक कि वह अक्सर खाना भी नवाब साथ ही खाते। नौकरों को ताकीद कर दी गई कि आजाद का जो हुक्म हो, वह फौरन बजा लाएँ, जरा भी मीनमेख न करें। ज्यों-ज्यों आजाद के गुण नवाब पर खुलते जाते थे, और मुसाहबों की किर-किरी होती जाती थी। अभी लोगों ने अच्छे मिर्जा को दरबार से निकलवाया था, अब आजाद के पीछे पड़े। यह सिर्फ पहलवानी ही जानते हें, गदके और बिनवट के दो-चार हाथ कुछ सीख लिए हैं, बस, उसी पर अकड़ते फिरते हैं कि जो कुछ हूँ, बस, मैं ही हूँ। पढ़े-लिखे वाजिबी ही वाजिबी हैं, शायरी इन्हें नहीं आती, मजहबी मुआमिलों में बिलकुल कोरे हैं। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 4
आजाद यह तो जानते ही थे कि नवाब के मुहाहबों में से कोई चौक के बाहर जानेवाला नहीं इसलिए साँड़नी तो एक सराय में बाँध दी और आप अपने घर आए। रुपए हाथ में थे ही, सवेरे घर से उठ खड़े होते, कभी साँड़नी पर, कभी पैदल, शहर और शहर के आस-पास के हिस्सों में चक्कर लगाते, शाम को फिर साँड़नी सराय में बाँध देते और घर चले आते। एक रोज सुबह के वक्त घर से निकले तो क्या देखते हैं कि एक साहब केचुललेट का धानी रँगा हुआ कुरता, उस पर रुपए गजवाली महीन शरबती का तीन कमरतोई का चुस्त अँगरखा, गुलबदन का चूड़ीदार घुटन्ना पहने, माँग निकाले, इत्र लगाए, माशे भर की नन्ही सी टोपी आलपीन से अटकाए, हाथों में मेहँदी, पोर-पोर छल्ले, आँखों में सुर्मा, छोटे पंजे का मखमली जूता पहने, एक अजब लोच से कमर लचकाते, फूँक-फूँक कर कदम रखते चले आते थे। दोनों ने एक दूसरे को खूब जोर से घूरा। छैले मियाँ ने मुसकराते हुए आवाज दी - ऐ, जरी इधर तो देखो, हवा के घोड़े पर सवार हो! मेरा कलेजा बल्लियों उछलता है। भरी बरसात के दिन, कहीं फिसल न पड़ो, तो कहकहा उड़े। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 5
मियाँ आजाद की साँड़नी तो सराय में बँधी थी। दूसरे दिन आप उस पर सवार हो कर घर से पड़े। दोपहर ढले एक कस्बे में पहुँचे। पीपल के पेड़ के साये में बिस्तर जमाया। ठंडे-ठंडे हवा के झोंकों से जरा दिल को ढारस हुई, पाँव फैला कर लंबी तानी, तो दीन दुनिया की खबर नहीं। जब खूब नींद भर कर सो चुके, तो एक आदमी ने जगा दिया। उठे, मगर प्यास के मारे हलक में काँटे पड़ गए। सामने इंदारे पर एक हसीन औरत पानी भर रही थी। हजरत भी पहुँचे। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 6
मियाँ आजाद मुँह-अँधेरे तारों की छाँह में बिस्तर से उठे, तो सोचे साँड़नी के घास-चारे की फिक्र करके कि जरा अदालत और कचहरी की भी दो घड़ी सैर कर आएँ। पहुँचे तो क्या देखते हैं, एक घना बाग है और पेड़ों की छाँह में मेला साल लगा है। कोई हलवाई से मीठी-मीठी बातें करता है। कोई मदारिए को ताजा कर रहा है। कूँजड़े फलों की डालियाँ लगाए बैठे हैं। पानवाले की दुकान पर वह भीड़ है कि खड़े होने की जगह नहीं मिलती। चूरनवाला चूरन बेच रहा है। एक तरफ एक हकीम साहब दवाओं की पुड़िया फैलाए जिरियान की दवा बेच रहे हैं। बीसों मुंशी-मुतसद्दी चटाइयों पर बैठे अर्जियाँ लिख रहे हैं। मुस्तगीस हैं कि एक-एक के पास दस-दस बैठे कानून छाँट रहे हैं - अरे मुंशी जी, यो का अंट-संट चिघटियाँ सी खँचाय दिहो? हम तो आपन मजमून बतावत हैं, तुम अपने अढ़ाई चाउर अलग चुरावत हौ। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 7
मियाँ आजाद साँड़नी पर बैठे हुए एक दिन सैर करने निकले, तो एक सराय में जा पहुँचे। देखा, एक में चार-पाँच आदमी फर्श पर बैठे धुआँधार हुक्के उड़ा रहे हैं, गिलौरी चबा रहे हैं और गजलें पढ़ रहे हैं। एक कवि ने कहा, हम तीनों के तखल्लुस का काफिया एक है - अल्लामी, फहामी और हामी मगर तुम दो ही हो - वकाद और जवाद। एक शायर और आ जायँ, तो दोनों तरफ से तीन-तीन हो जायँ। इतने में मियाँ आजाद तड़ से पहुँच गए। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 8
एक दिन मियाँ आजाद सराय में बैठे सोच रहे थे, किधर जाऊँ कि एक बूढ़े मियाँ लठिया टेकते आ हुए और बोले - मियाँ, जरी यह खत तो पढ़ लीजिए, और इसका जवाब भी लिख दीजिए। आजाद ने खत लिखा और पढ़ कर सुनाने लगे - मेरे खूसट शौहर, खुदा तुमसे समझे! आजाद - वाह! यह तो निराला खत है। न सलाम, न बंदगी। शुरू ही से कोसना शुरू किया। बूढ़े - जनाब, आप खत पढ़ते हैं कि मेरे घर का कजिया चुकाते हैं? पराये झगड़े से आपका वास्ता? जब मियाँ-बीबी राजी है, तब आप कोई काजी हैं! ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 9
आजाद को नवाब साहब के दरबार से चले महीनों गुजर गए, यहाँ तक कि मुहर्रम आ गया। घर से तो देखते क्या हैं, घर-घर कुहराम मचा हुआ है, सारा शहर हुसेन का मातम मना रहा है। जिधर देखिए, तमाशाइयों की भीड़, मजलिसों की धूम, ताजिया-खानों में चहल-पहल और इमामबाड़ों में भीड़-भाड़ है। लखनऊ की मजलिसों का क्या कहना! यहाँ के मर्सिये पढ़नेवाले रूम और शाम तक मशहूर हैं। हुसेनाबाद का इमामबाड़ा चौदहवीं रात का चाँद बना हुआ था। उनके साथ एक दोस्त भी हो लिए थे। उनकी बेकरारी का हाल न पूछिए। वह लखनऊ से वाकिफ न थे, लोटे जाते थे कि हमें लखनऊ का मुहर्रम दिखा दो मगर कोई जगह छूटने न पाए। एक आदमी ने ठंडी साँस खींच कर कहा - मियाँ अब वह लखनऊ कहाँ? वे लोग कहाँ? वे दिन कहाँ? लखनऊ का मुहर्रम रंगीले पिया जान आलम के वक्त में अलबत्ता देखने काबिल था। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 10
वसंत के दिन आए। आजाद को कोई फिक्र तो थी ही नहीं, सोचे, आज वसंत की बहार देखनी चाहिए। से निकल खड़े हुए, तो देखा कि हर चीज जर्द है, पेड़-पत्ते जर्द, दरो-दीवार जर्द, रंगीन कमरे जर्द, लिबास जर्द, कपड़े जर्द। शाहमीना की दरगाह में धूम है, तमाशाइयों का हुजूम है। हसीनों के झमकड़ें, रँगीले जवानों की रेल-पेल, इंद्र के अखाड़े की परियों का दगल है, जंगल में मंगल है। वसंत की बहार उमंग पर है, जाफरानी दुपट्टों और केसरिये पाजामों पर अजब जोबन है। वहाँ से चौक पहुँचे। जौहरियों की दुकान पर ऐसे सुंदर पुखराज हैं कि पुखराज-परी देखती, तो मारे शर्म के हीरा खाती और इंद्र का अखाड़ा भूल जाती। मेवा बेचनेवाली जर्द आलू, नारंगी, अमरूद, चकोतरा, महताबी की बहार दिखलाती है, चंपई दुपट्टे पर इतराती है। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 11
एक दिन आजाद शहर की सैर करते हुए एक मकतबखाने में जा पहुँचे। देखा, एक मौलवी साहब खटिया पर बैठे हुए लड़कों को पढ़ा रहे हैं। आपकी रँगी हुई दाढ़ी पेट पर लहरा रही है। गोल-गोल आँखें, खोपड़ी घुटी-घुटाई, उस पर चौगोशिया टोपी जमी-जमाई। हाथ में तसबीह लिए खटखटा रहे हैं। लौंडे इर्द-गिर्द गुल मचा रहे हैं। हू-हक मची हुई है, गोया कोई मंडी लगी हुई है। तहजीब कोसों दूर, अदब काफूर, मगर मौलवी साहब से इस तरह से डरते हैं, जैसे चूहा बिल्ली से, या अफीमची नाव से। जरी चितवन तीखी हुई, और खलबली मच गई। सब किताबें खोले झूम-झूम कर मौलवी साहब को फुसला रहे हैं। एक शेर जो रटना शुरू किया, तो बला की तरह उसको चिमट गए। मतलब तो यह कि मौलवी साहब मुँह का खुलना और जबान का हिलना और उनका झूमना देखें, कोई पढ़े या न पढ़े, इससे मतलब नहीं। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 12
आजाद तो इधर साँड़नी को सराय में बाँधे हुए मजे से सैर-सपाटे कर रहे थे, उधर नवाब साहब के रोज उनका इंतिजार रहता था कि आज आजाद आते होंगे और सफशिकन को अपने साथ लाते होंगे। रोज फाल देखी जाती थी, सगुन पूछे जाते थे। मुसाहब लोग नवाब को भड़काते थे कि अब आजाद नहीं लौटने के लेकिन नवाब साहब को उनके लौटने का पूरा यकीन था। एक दिन बेगम साहबा ने नवाब साहब से कहा - क्यों जी, तुम्हारा आजाद किस खोह में धँस गया? दो महीने से तो कम न हुए होंगे। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 13
इधर शिवाले का घंटा बजा ठनाठन, उधर दो नाकों से सुबह की तोप दगी दनादन। मियाँ आजाद अपने एक के साथ सैर करते हुए बस्ती के बाहर जा पहुँचे। क्या देखते हैं, एक बेल-बूटों से सजा हुआ बँगला है। अहाता साफ, कहीं गंदगी का नाम नहीं। फूलों-फलों से लदे हुए दरख्त खड़े झूम रहे हें। दरवाजों पर चिकें पड़ी हुई हैं। बरामदे में एक साहब कुर्सी पर बैठे हुए हैं, और उनके करीब दूसरी कुर्सी पर उनकी मेम साहबा बिराज रही हैं। चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। न कहीं शोर, न कहीं गुल। आजाद ने कहा - जिंदगी का मजा तो ये लोग उठाते हैं। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 14
मियाँ आजाद ठोकरें खाते, डंडा हिलाते, मारे-मारे फिरते थे कि यकायक सड़क पर एक खूबसूरत जवान से मुलाकात हुई। इन्हें नजर भर कर देखा, पर यह पहचान न सके। आगे बढ़ने ही को थे कि जवान ने कहा - हम भी तसलीम की खू डालेंगे बेनियाजी तेरी आदत ही सही। आजाद ने पीछे फिर कर देखा, जवान ने फिर कहा - गो नहीं पूछते हरगिज वो मिजाज हम तो कहते हैं, दुआ करते हैं। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 15
मियाँ आजाद एक दिन चले जाते थे। क्या देखते हैं, एक पुरानी-धुरानी गड़हिया के किनारे एक दढ़ियल बैठे काई कैफियत देख रहे हैं।कभी ढेला उठाकर फेंका, छप। बुड्ढे आदमी और लौंडे बने जाते हैं। दाढ़ी का भी खयाल नहीं। लुत्फ यह कि मुहल्ले भर के लौंडे इर्द-गिर्द खड़े तालियाँ बजा रहे हैं, लेकिन आप गड़हिया की लहरों ही पर लट्टू हैं। कमर झुकाए चारों तरफ ढेले और ठीकरे ढूँढ़ते फिरते हैं। एक दफा कई ढेले उठा कर फेंके। आजाद ने सोचा, कोई पागल है क्या। साफ-सुथरे कपड़े पहने, यह उम्र, यह वजा, और किस मजे से गड़हिया पर बैठे रँगरलियाँ मना रहे हैं। यह खबर नहीं कि गाँव भर के लौंडे पीछे तालियाँ बजा रहे हें। एक लौंडे ने चपत जमाने के लिए हाथ उठाया, मगर हाथ खींच लिया। दूसरे ने पेड़ की आड़ से कंकड़ी लगाई। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 16
मियाँ आजाद के पाँव में तो आँधी रोग था। इधर-उधर चक्कर लगाए, रास्ता नापा और पड़ कर सो रहे। दिन साँड़नी की खबर लेने के लिए सराय की तरफ गए, तो देखा, बड़ी चहल-पहल है। एक तरफ रोटियाँ पक रही हैं, दूसरी तरफ दाल बघारी जाती है। भठियारिनें मुसाफिरों को घेर-घार कर ला रही हैं, साफ-सुथरी कोठरियाँ दिखला रही हैं। एक कोठरी के पास एक मोटा-ताजा आदमी जैसे ही चारपाई पर बैठा, पट्टी टूट गई। आप गड़ाप से झिलँगे में हो रहे। अब बार-बार उचकते है मगर उठा नहीं जाता। चिल्ला रहे हैं कि भाई, मुझे कोई उठाओ। आखिर भठियारों ने दाहिना हाथ पकड़ा, बाईं तरफ मियाँ आजाद ने हाथ दिया और आपको बड़ी मुश्किल से खींच खाँच के निकाला। झिलँगे से बाहर आए, तो सूरत बिगड़ी हुई थी। कपड़े कई जगह मसक गए थे। झल्ला कर भठियारी से बोले - वाह, अच्छी चारपाई दी! जो मरे हाथ-पाँव टूट जाते, या सिर फूट जाता, तो कैसी होती? ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 17
आजाद के दिल में एक दिन समाई कि आज किसी मसजिद में नमाज पढ़े, जुमे का दिन है, जामे-मसजिद खूब जमाव होगा। फौरन मसजिद में आ पहुँचे। क्या देखते हैं, बड़े-बड़े जहिद और मौलवी,काजी और मुफ्ती बड़े-बड़े अमामे सिर पर बाँधे नमाज पढ़ने चले आ रहे हैं अभी नमाज शुरू होने में देर है, इसलिए इधर-उधर की बातें करके वक्त काट रहे हैं। दो आदमी एक दरख्त के नीचे बैठे जिन्न और चुड़ैल की बातें कर रहे हैं। एक साहब नवजवान हैं, मोटे-ताजे दूसरे साहब बुड्ढे हैं, दुबले-पतले। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 18
मियाँ आजाद एक दिन चले जाते थे, तो देखते क्या हैं, एक चौराहे के नुक्कड़ पर भंगवाले की दुकान और उस पर उनके एक लँगोटिए यार बैठे डींग की ले रहे हैं। हमने जो खर्च कर डाला, वह किसी को पैदा करना भी नसीब न हुआ होगा, लाखों कमाए, करोड़ों लुटाए, किसी के देने में न लेने में। आजाद ने झुक कर कान में कहा - वाह भई उस्ताद, क्यों न हो, अच्छी लंतरानियाँ हैं। बाबा तो आपके उम्र भर बर्फ बेचा किए और दादा जूते की दुकान रखते-रखते बूढ़े हुए। आपने कमाया क्या, लुटाया क्या? याद है, एक दफे साढ़े छह रुपए की मुहर्रिरी पाई, मगर उससे भी निकाले गए। उसने कहा - आप भी निरे गावदी हैं। अरे मियाँ, अब गप उड़ाने से भी गए? भंगवाले की दुकान पर गप न मारूँ, तो और कहाँ जाऊँ? फिर इतना तो समझो कि यहाँ हमको जानता कौन है। मियाँ आजाद तो एक सैलानी आदमी थे ही, एक तिपाई पर टिक गए। देखते क्या हैं, एक दरख्त के तले सिरकी का छप्पर पड़ा है, एक तख्त बिछा है, भंगवाला सिल पर रगड़ें लगा रहा है। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 19
एक दिन मियाँ आजाद साँड़नी पर सवार हो घूमने निकले, तो एक थिएटर में जा पहुँचे। सैलानी आदमी तो ही, थिएटर देखने लगे, तो वक्त का खयाल ही न रहा। थिएटर बंद हुआ, तो बारह बज गए थे। घर पहुँचना मुश्किल था। सोचे, आत रात को सराय ही में पड़ रहें। सोए, तो घोड़े बेचकर। भठियारी ने आ कर जगाया - अजी, उठो, आज तो जैसे घोड़े बेच कर सोए हो! ऐ लो, वह आठ का गजर बजा। अँगड़ाइयों पर अँगड़ाइयाँ ले रहे हैं, मगर उठने का नाम नहीं लेते। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 20
दूसरे दिन सवेरे आजाद की आँख खुली तो देखा, एक शाह जी उनके सिरहाने खड़े उनकी तरफ देख रहे शाह जी के साथ एक लड़का भी है, जो अलारक्खी को दुआएँ दे रहा है। आजाद ने समझा, कोई फकीर है, झठ उठ कर उनको सलाम किया। फकीर ने मुसकिरा कर कहा - हुजूर, मेरा इनाम हुआ। सच कहिएगा, ऐसे बहुरूपिए कम देखे होंगे। आजाद ने देखा गच्चा खा गए, अब बिना इनाम दिए गला न छूटेगा। बस, अलारक्खी की भड़कीली दुलाई उठाकर दे दी। बहुरूपिए ने दुलाई ली, झुक कर सलाम किया और लंबा हुआ। लौंडे ने देखा कि मैं ही रहा जाता हूँ। बढ़ कर आजाद का दामन पकड़ा। हुजूर, हमें कुछ भी नहीं? आजाद ने जेब से एक रुपया निकाल कर फेंक दिया। तब अलारक्खी चमक कर आगे बढ़ीं और बोलीं - हमें? ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 21
मियाँ आजाद रेल पर बैठ कर नाविल पढ़ रहे थे कि एक साहब ने पूछा - जनाब, दो-एक दम तो पेचवान हाजिर है। वल्लाह, वह धुआँधार पिलाऊँ कि दिल फड़क उठे। मगर याद रखिए, दो दम से ज्यादा की सनद नहीं। ऐसा न हो, आप भैंसिया-जोंक हो जायँ। आजाद ने पीछे फिर कर देखा, तो एक बिगड़े-दिल मजे से बैठे हुक्का पी रहे हैं। बोले, यह क्या अंधेर है भाई? आप रेल ही पर गुड़गुड़ाने लगे और हुक्का भी नहीं, पेचबान। जो कहीं आग लग जाय, तो? ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 22
मियाँ आजाद के पाँव में तो सनीचर था। दो दिन कहीं टिक जायँ तो तलवे खुजलाने लगें। पतंगबाज के चार-पाँच दिन जो जम गए, तो तबीयत घबराने लगी लखनऊ की याद आई। सोचे, अब वहाँ सब मामला ठंडा हो गया होगा। बोरिया-बँधना उठाया और शिकरम-गाड़ी की तरफ चले। रेल पर बहुत चढ़ चुके थे, अब की शिकरम पर चढ़ने का शौक हुआ। पूछते-पूछते वहाँ पहुँचे। डेढ़ रुपए किराया तय हुआ, एक रुपया बयाना दिया। मालूम हुआ, सात बजे गाड़ी छूट जायगी, आप साढ़े-छह बजे आ जाइए। आजाद ने असबाब तो वहाँ रखा, अभी तीन ही बजे थे, पतंगबाज के यहाँ आ कर गप-शप करने लगे। बातों-बातों में पौंने सात बज गए। शिकरम की याद आई, बचा-खुचा असबाब मजदूर के सिर पर लाद कर लदे-फँदे घर से चल खड़े हुए। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 23
मियाँ आजाद शिकरम पर से उतरे, तो शहर को देख कर बाग-बाग हो गए। लखनऊ में घूमे तो बहुत पर इस हिस्से की तरफ आने का कभी इत्तिफाक न हुआ था। सड़कें साफ, कूड़े-करकट से काम नहीं, गंदगी का नाम नहीं, वहाँ एक रंगीन कोठी नजर आई, तो आँखों ने वह तरावट पाई कि वाह जी, वाह! उसकी बनावट और सजावट ऐसी भायी कि सुभान-अल्लाह। बस, दिल में खुब ही तो गई। रविशें दुनिया से निराली, पौदों पर वह जोबन कि आदमी बरसों घूरा करे। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 24
बड़ी बेगम साहबा पुराने जमाने की रईसजादी थीं, टोने टोटके में उन्हें पूरा विश्वास था। बिल्ली अगर घर में दिन आ जाय, तो आफत हो जाय। उल्लू बोला और उनकी जान निकली। जूते पर जूता देखा और आग हो गईं। किसी ने सीटी बजाई और उन्होंने कोसना शुरू किया। कोई पाँव पर पाँव रख कर सोया और आपने ललकारा। कुत्ता गली में रोया और उनका दम निकल गया। रास्ते में काना मिला ओर उन्होंने पालकी फेर दी। तेली की सूरत देखी और खून सूख गया। किसी ने जमीन पर लकीर बनाई और उसकी शामत आई। रास्ते में कोई टोक दे, तो उसके सिर हो जाती थीं। सावन के महीने में चारपाई बनवाने की कसम खाई थी। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 25
मियाँ आजाद हुस्नआरा के यहाँ से चले, तो घूमते-घामते हँसोड़ के मकान पर पहुँचे और पुकारा। लौंड़ी बोली कि तो कहाँ गए हैं, आप बैठिए। आजाद - भाभी साहब से हमारी बंदगी कह दो ओर कहो, मिजाज पूछते हैं। लौंडी - बेगम साहबा सलाम करती हैं और फर्माती हैं कि कहाँ रहे? आजाद - इधर-उधर मारा-मारा फिरता था। लौंडी - वह कहती हैं, हमसे बहुत न उड़िए। यहाँ कच्ची गोलियाँ नहीं खेलीं। कहिए, आपकी हुस्नआरा तो अच्छी है। यह बजरे पर हवा खाना और यहाँ आ कर बुत्ते बताना। आजाद - आपसे यह कौन कच्चा चिट्ठा कह गया? लौंडी - कहती हैं कि मुझसे भी परदा है? इतना तो बता दीजिए कि बरात किस दिन चढ़ेगी? हमने सुना है, हुस्नआरा आप पर बेतरह रीझ गईं। और, क्यों न रीझें, आप भी तो माशाअल्लाह गबरू जवान हैं। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 26
आजाद ने सोचा कि रेल पर चलने से हिंदोस्तान की हालत देखने में न आएगी। इसलिए वह लखनऊ के पर सवार न होकर घोड़े पर चले थे। एक शहर से दूसरे शहर जाना, जंगल और देहात की सैर करना, नए-नए आदमियों से मिलना उन्हें पसंद था। रेल पर ये मौके कहाँ मिलते। अलारक्खी के चले जाने के एक दिन बाद वह भी चले। घूमते-घामते एक कस्बे में जा पहुँचे। बीमारी से तो उठे ही थे, थक कर एक मकान के सामने बिस्तर बिछाया और डट गए। मियाँ खोजी ने आग सुलगाई और चिलम भरने लगे। इतने में उस मकान के अंदर से एक बूढ़े निकले और पूछा - आप कहाँ जा रहे हैं? ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 27
मियाँ आजाद और खोजी चलते-चलते एक नए कस्बे में जा पहुँचे और उसकी सैर करने लगे। रास्ते में एक सज-धज के जवान दिखाई पड़े। सिर से पैर तक पीले कपड़े पहने हुए, ढीले पाँयचे का पाजामा, केसरिये केचुल लोट का अँगरखा, केसरिया रँगी दुपल्ली टोपी, कंधों पर केसरिया रूमाल जिसमें लचका टँका हुआ। सिन कोई चालीस साल का। आजाद - क्यों भई खोजी, भला भाँपो तो, यह किस देश के हैं। खोजी - शायद काबुल के हों। आजाद - काबुलियों का यह पहनावा कहाँ होता है। खोजी - वाह, खूब समझे! क्या काबुल में गधे नहीं होते? ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 28
दूसरे दिन नौ बजे रात को नवाब साहब और उनके मुसाहब थिएटर देखने चले। नवाब - भई, आबादीजान को भी ले चलेंगे। मुसाहब - जरूर, जरूर उनके बगैर मजा किरकिरा हो जायगा। इतने में फिटन आ पहुँची और आबादीजान छम-छम करती हुई आ कर मसनद पर बैठ गईं। नवाब - वल्लाह, अभी आप ही का जिक्र था। आबादी - तुमसे लाख दफे कह दिया कि हमसे झूठ न बोला करो। हमें कोई देहाती समझा है! नवाब - खुदा की कसम, चलो, तुमको तमाशा दिखा लाएँ। मगर मरदाने कपड़े पहन कर चलिए, वर्ना हमारी बेइज्जती होगी। आबादी ने तिनग कर कहा - जो हमारे चलने में बेआबरूई है, तो सलाम। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 29
आज तो निराला समाँ है। गरीब, अमीर, सब रँगरलियाँ मना रहे हैं। छोटे-बड़े खुशी के शादियाने बजा रहे हैं। बुलबुल के चहचहे, कहीं कुमरी के कह-कहे। ये ईद की तैयारियाँ हैं। नवाब साहब की मसजिद का हाल न पूछिए। रोजे तो आप पहले ही चट कर गए थे, लेकिन ईद के दिन धूमधाम से मजलिस सजी। नूर के तड़के से मुसाहबों ने आना शुरू किया और मुबारक-मुबारक की आवाज ऐसी बुलंद की कि फरिश्तों ने आसमान को थाम लिया, नहीं तो जमीन और आसमान के कुलाबे मिल जाते। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 30
दूसरे दिन सुबह को नवाब साहब जनानखाने से निकले, तो मुसाहबों ने झुक-झुक कर सलाम किया। खिदमतगार ने चाय साफ-सुथरी प्यालियाँ और चमचे ला कर रखे। नवाब ने एक-एक प्याली अपने हाथ से मुसाहबों को दी और सबने गरम-गरम दूधिया चाय उड़ानी शुरू की। एक-एक घूँट पीते जाते हैं और गप भी उड़ाते जाते हैं। मुसाहब - हुजूर, कश्मीरी खूब चाय तैयार करते हैं। हाफिज - हमारी सरकार में जो चाय तैयार होती है, सारी खुदाई में तो बनती न होगी। जरा रंग तो देखिए। हिंदू भी देखे, तो मुँह में पानी भर आए। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 31
एक दिन पिछले पहर से खटमलों ने मियाँ खोजी के नाक में दम कर दिया। दिन भर का खून की तरह पी गए। हजरत बहुत ही झल्लाए। चीख उठे, लाना करौली, अभी सबका खून चूस लूँ। यह हाँक हो औरों ने सुनी, तो नींद हराम हो गई। चोर का शक हुआ। लेना-देना, जाने न पाए। सराय भर में हुल्लड़ मच गया। कोई आँखें मलता हुआ अँधेरे में टटोलता है, कोई आँखें फाड़-फाड़ कर अपनी गठरी को देखता है, कोई मारे डर के आँखें बंद किए पड़ा है। मियाँ खोजी ने जो चोर-चोर की आवाज सुनी, तो खुद भी गुल मचाना शुरू किया - लाना मेरी करौली। ठहर! मैं भी आ पहुँचा। पिनक में सूझ गई कि चोर आगे भागा जाता है, दौड़ते-दौड़ते ठोकर खाते हैं तो अररर धों! गिरे भी तो कहाँ, जहाँ कुम्हार के हंडे रखे थे। गिरना था कि कई हंडे चकनाचूर हो गए। कुम्हार ने ललकारा कि चोर-चोर। यह उठने ही को थे कि उसने आकर दबोच लिया और पुकारने लगा - दौड़ो-दौड़ो, चोर पकड़ लिया। मुसाफिर और भठियारे सब के सब दौड़ पड़े। कोई डंडा लिए है, कोई लट्ठ बाँधे। किसी को क्या मालूम कि यह चोर है, या मियाँ खोजी। खूब बेभाव की पड़ी। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 32
सुबह को गाड़ी एक बड़े स्टेशन पर रुकी। नए मुसाफिर आ-आ कर बैठने लगे। मियाँ खोजी अपने कमरे के पर खड़े घुड़कियाँ जमा रहे थे - आगे जाओ, यहाँ जगह नहीं है क्या मेरे सिर पर बैठोगे? इतने में एक नौजवान दूल्हा बराती कपड़े पहने आ कर गाड़ी में बैठ गया। बरात के और आदमी असबाब लदवाने में मसरूफ थे। दुलहिन और उसकी लौंडी जनाने कमरे में बैठाई गई थीं। गाड़ी चलनेवाली ही थी कि एक बदमाश ने गाड़ी में घुस कर दूल्हे की गरदन पर तलवार का ऐसा हाथ लगाया कि सिर कट कर धड़ से अलग हो गया। उस बेगुनाह की लाश फड़कने लगी। स्टेशन पर कुहराम मच गया। सैकड़ों आदमी दौड़ पड़े और कातिल को गिरफ्तार कर लिया। यहाँ तो यह आफत थी, उधर दुलहिन और महरी में और ही बातें हो रही थीं। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 33
रेल से उतर कर दोनों, आदमियों ने एक सराय में डेरा जमाया और शहर की सैर को निकले। यों यहाँ की सभी चीजें भली मालूम होती थीं, लेकिन सबसे ज्यादा जो बात उन्हें पसंद आई, वह यह थी कि औरतें बिला चादर और घूँघट के सड़कों पर चलती-फिरती थीं। शरीफजादियाँ बेहिजाब नकाब उठाए मगर आँखों में हया और शर्म छिपी हुई। खोजी - क्यों मियाँ, यह तो कुछ अजब रस्म है? ये औरतें मुँह खोले फिरती हैं। शर्म और हया सब भून खाई। वल्लाह, क्या आजादी है! ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 34
इधर तो ये बातें हो रही थीं, उधर आजाद से एक आदमी ने आकर कहा - जनाब, आज मेला न चलिएगा? वह-वह सूरतें देखने में आती हैं कि देखता ही रह जाय। नाज से पायँचे उठाए हुए, शर्म से जिस्म को चुराए हुए! नशए-बादए शबाब से चूर, चाल मस्ताना, हुस्न पर मगरूर। सैकड़ों बल कमर को देती हुई, जाने ताऊस कब्क लेती हुई। चलिए और मियाँ खोजी को साथ लीजिए। आजाद रँगीले थे ही, चट तैयार हो गए। सज-धज कर अकड़ते हुए चले। कोई पचास कदम चले लोंगे कि एक झरोखे से आवाज आई - ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 35
खोजी ने दिल में ठान ली कि अब जो आएगा, उसको खूब गौर से देखूँगा। अब की चकमा चल तो टाँग की राह निकल जाऊँ। दो दफे क्या जानें, क्या बात हो गई कि वह चकमा दे गया। उड़ती चिड़िया पकड़नेवाले हैं। हम भी अगर यहाँ रहते होते, तो उस मरदूद बहुरूपिए को चचा ही बना कर छोड़ते। इतने में सामने एकाएक एक घसियारा घास का गट्ठा सिर पर लादे, पसीने में तर आ खड़ा हुआ और खोजी से बोला - हुजूर, घास तो नहीं चाहिए? ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 36
मियाँ आजाद मिरजा साहब के साथ जहाज की फिक्र में गए। इधर खोजी ने अफीम की चुस्की लगाई और पर दराज हुए। जैनब लौंडी जो बाहर आई, तो हजरत को पिनक में देख कर खूब खिलखिलाई और बेगम से जाकर बोली - बीबी, जरी परदे के पास आइए, तो लोट-लोट जाइए। मुआ खोजी अफीम खाए औंधे मुँह पड़ा हुआ है। जरी आइए तो सही। बेगम ने परदे के पास से झाँका तो उनको एक दिल्लगी सूझी। झप से एक बत्ती बनाई और जैनब से कहा कि ले, चुपके से इनकी नाक में बत्ती कर। जैनब एक ही शरीर बिस की गाँठ। वह जा कर बत्ती में तीता मिर्च लगा लाई और खोजी की खटिया के नीचे घुस कर मियाँ खोजी की नाक में आधी बत्ती दाखिल ही तो कर दी। उफ! इस वक्त मारे हँसी के लिखा नहीं जाता। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 37
जरा ख्वाजा साहब की भंगिमा देखिएगा। वल्लाह, इस वक्त फोटो उतारने के काबिल है। न हुआ फोटो। सुबह का है। आप खारुए की एक लुंगी बाँधे पीपल के दरख्त के साये में खटिया बिछाए ऊँघ रहे हैं, मगर गुड़गुड़ी भी एक हाथ में थामे हैं। चाहे पिएँ न, मगर चिलम पर कोयले दहकते रहें? इत्तिफाक से एक चील ने दरख्त पर से बीट कर दी। तब आप चौंके और चौंकते ही आ ही गए। बहुत उछले-कूदे और इतना गुल मचाया कि मुहल्ला भर सिर पर उठा लिया। हत तेरे गीदी की, हमें भी कोई वह समझ लिया है। आज चील बन कर आया है। करौली तो वहाँ तक पहुँचेगी नहीं तोड़ेदार बंदूक होती, तो वह ताक के निशाना लगाता कि याद ही करता। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 38
खोजी ने एक दिन कहा - अरे यारो, क्या अंधेर है। तुम रूम चलते-चलते बुड्ढे हो जाओगे। स्पीचें सुनीं, चखीं, अब बकचा सँभालो और चलो। अब चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय, हम एक न मानेंगे। चलिए, उठिए। कूच बोलिए। आजाद - मिरजा साहब, इतने दिनों में खोजी ने एक यही तो बात पक्की कही। अब जहाज का जल्द इंतिजाम कीजिए। खोजी - पहले यह बताइए कि कितने दिनों का सफर है? आजाद - इससे क्या वास्ता? हम कभी जहाज पर सवार हुए हों तो बताएँ। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 39
शाम के वक्त मिरजा साहब की बेगम ने परदे के पास आ कर कहा - आज इस वक्त कुछ नहीं है क्या खोजी इस दुनिया से सिधार गए? मिरजा - देखो खोजी, बेगम साहबा क्या कह रही हैं। खोजी - कोई अफीम तो पिलवाता नहीं, चहल-पहल कहाँ से हो? लतीफे सुनाऊँ, तो अफीम पिलवाइएगा? बेगम - हाँ, हाँ, कहो तो। मरो भी, तो पोस्ते ही के खेत में दफनाए जाओ। काफूर की जगह अफीम हो, तो सही। खोजी - एक खुशनसीब थे। उनके कलम से ऐसे हरूफ निकलते थे, जैसे साँचे के ढले हुए। मगर इन हजरत में एक सख्त ऐब यह था कि गलत न लिखते थे। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 40
सुबह का वक्त था। मियाँ आजाद पलंग से उठे तो देखा, बेगम साहबा मुँह खोले बेतकल्लुफी से खड़ी उनकी कनखियों से ताक रही हैं। मिरजा साहब को आते देखा, तो बदन को चुरा लिया, और छलाँग मारी, तो जैनब की ओट में थीं। मिरजा - कहिए, आज क्या इरादे हैं? आजाद - इस वक्त हमको किसी ऐसे आदमी के पास ले चलिए, जो तुरकी के मामलों से खूब वाकिफ हो। हमें वहाँ का कुछ हाल मालूम ही नहीं। कुछ सुन तो लें। वहाँ के रंग-ढंग तो मालूम हों। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 41
हुस्नआरा मीठी नींद सो रही थी। ख्वाब में क्या देखती है कि एक बूढ़े मियाँ सब्ज कपड़े पहने उसके आ कर खड़े हुए और एक किताब दे कर फरमाया कि इसे लो और इसमें फाल देखो। हुस्नआरा ने किताब ली और फाल देखा, तो यह शेर था - हमें क्या खौफ है, तूफान आवे या बला टूटे। आँख खुल गई तो न बूढ़े मियाँ थे, न किताब। हुस्नआरा फाल-वाल की कायल न थी मगर फिर भी दिल को कुछ तसकीन हुई। सुबह को वह अपनी बहन सिपहआरा से इस ख्वाब का जिक्र कर रही थी कि लौंडी ने आजाद का खत ला कर उसे दिया। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 42
शहर से कोई दो कोस के फासले पर एक बाग है, जिसमें एक आलीशान इमारत बनी हुई है। इसी शाहजादा हुमायूँ फर आ कर ठहरे हैं। एक दिन शाम के वक्त शाहजादा साहब बाग में सैर कर रहे थे और दिल ही दिल में सोचते जाते थे कि शाम भी हो गई मगर खत का जवाब न आया। कहीं हमारा खत भेजना उन्हें बुरा तो न मालूम हुआ। अफसोस, मैंने जल्दी की। जल्दी का काम शैतान का। अपने खत और उसकी इबारत को सोचने लगे कि कोई बात अदब के खिलाफ जबान से निकल गई हो तो गजब ही हो जाय। इतने में क्या देखते हैं कि एक आदमी साँड़नी पर सवार दूर से चला आ रहा है। समझे, शायद मेरे खत का जवाब लाता होगा। खिदमतगारों से कहा कि देखो, यह कौन आदमी है? खत लाया है या खाली हाथ आया है? आदमी लोग दौड़े ही थे कि साँड़नी सवार हवा हो गया। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 43
शाहजादा हुमायूँ फर महरी को भेज कर टहलने लगे, मगर सोचते जाते थे कि कहीं दोनों बहनें खफा न गई हों, तो फिर बेढब ठहरे। बात की बात जाय, और शायद जान के भी लाले पड़ जायँ। देखें, महरी क्या खबर लाती है। खुदा करे, दोनों महरी को साथ ले कर छत पर चली आवें। इतने में महरी आई और मुँह फुला कर खड़ी हो गई। शाहजादा - कहो, साफ-साफ। महरी - हुजूर, क्या अर्ज करूँ! शाहजादा - वह तो हम तुम्हारी चाल ही से समझ गए थे कि बेढब हुई। कह चलो, बस। महरी - अब लौंडी वहाँ नहीं जाने की। शाहजादा - पहले मतलब की बात तो बताओ कि हुआ क्या? ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 44
हुस्नआरा और सिपहआरा, दोनों रात को सो रही थीं कि दरबान ने आवाज दी - मामा जी, दरवाजा खोलो। मामा दिलबहार देखो कौन पुकारता है? दिलबहार - ऐ वाह, फिर खोल क्यों नहीं देतीं? मामा - मेरी उठती है जूती दिन भर की थकी-माँदी हूँ। दिलबहार - और यहाँ कौन चंदन-चौकी पर बैठा है? दरबान - अजी, लड़ लेना पीछे, पहले किवाँड़े खोल जाओ। मामा - इतनी रात गए क्यों आफत मचा रखी हैं? दरबान - अजी, खोलो तो, सवारियाँ आई हैं। हुस्नआरा - कहाँ से? अरे दिलबहार! मामा! क्या सब की सब मर गईं? अब हम जायँ दरवाजा खोलने? हुस्नआरा की आवाज सुन कर सब की सब एक दम उठ खड़ी हुई। मामा ने परदा करा कर सवारियाँ उतरवाईं। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 45
एक दिन हुस्नआरा को सूझी कि आओ, अब की अपनी बहनों को जमा करके एक लेक्चर दूँ। बहारबेगम बोलीं क्या? क्या दोगी? हुस्नआरा - लेक्चर-लेक्चर। लेक्चर नहीं सुना कभी? बहारबेगम - लेक्चर क्या बला है? हुस्नआरा - वही, जो दूल्हा भाई जलसों में आए दिन पढ़ा करते हैं। बहारबेगम - तो हम क्या तुम्हारे दूल्हा भाई के साथ-साथ घूमा करते हैं? जाने कहाँ-कहाँ जाते हैं, क्या पढ़-पढ़के सुनाते हैं। इतना हमको मालूम है कि शेर बहुत कहते हैं। एक दिन हमसे कहने लगे - चलो, तुमको सैर करा लाएँ। फिटन पर बैठ लो। रात का वक्त है, तुम दुशाले से खूब मुँह और जिस्म चुरा लेना। मैंने कानों पर हाथ धरे कि न साहब, बंदी ऐसी सैर से दरगुजरी। वहाँ जाने कौन-कौन हो, हम नहीं जाने के। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 46
सवेरे हुस्नआरा तो कुछ पढ़ने लगी और बहारबेगम ने सिंगारदान मँगा कर निखरना शुरू किया। हुस्नआरा - बस, सुबह तो शाम तो सिंगार। कंघी-चोटी, तेल-फुलेल। इसके सिवा तुम्हें और किसी चीज से वास्ता नहीं। रूहअफजा सच कहती हैं कि तुम्हें इसका रोग है। बहारबेगम - चलो, फिर तुम्हें क्या? तुम्हारी बातों में खयाल बँट गया, माँग टेढ़ी हो गई। हुस्नआरा - है-है! गजब हो गया। यहाँ तो दूल्हा भाई भी नहीं हैं! आखिर यह निखार दिखाओगी किसे? बहारबेगम - हम उठ कर चले जायँगे। तुम छेड़ती जाती हो और यह मुआ छपका सीधा नहीं रहता। हुस्नआरा - अब तक माँग का खयाल था, अब छपके का खयाल है। बहारबेगम - अच्छा, एक दिन हम तुम्हारा सिंगार कर दें, खुदा की कसम वह जोबन आ जाय कि जिसका हक है। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 47
आज हम उन नवाब साहब के दरबार की तरफ चलते हैं, जहाँ खोजी और आजाद ने महीनों मुसाहबत की और आजाद बटेर की तलाश में महीनों सैर-सपाटे करते रहे थे। शाम का वक्त था। नवाब साहब एक मसनद पर शान से बैठे हुए थे। इर्द-गिर्द मुसाहब लोग बैठे हुक्कके गुड़गुड़ाते थे। बी अलारक्खी भी जा कर मसनद का कोना दबा कर बैठीं। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 48
जिस जहाज पर मियाँ आजाद और खोजी सवार थे, उसी पर एक नौजवान अंगरेज अफसर और उसकी मेम भी अंगरेज का नाम चार्ल्स अपिल्टन था और मेम का वेनेशिया। आजाद को उदास देख कर वेनेशिया ने अपने शौहर से पूछा - इस जेंटिलमैन से क्योंकर पूछें कि यह बार-बार लंबी साँसें क्यों ले रहा है? ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 49
एक आलीशान महल की छत पर हुस्नआरा और उनकी तीनों बहनें मीठी नींद सो रही हैं। बहारबेगम की जुल्फ अंबर की लपटें आती थीं रूहअफजा के घूँघरवाले बाल नौजवानों के मिजाज की तरह बल खाते थे सिपहआरा की मेहँदी अजब लुत्फ दिखाती थी और हुस्नआरा बेगम के गोरे-गोरे मुखड़े के गिर्द काली-काली जुल्फों को देख कर धोखा होता था कि चाँद ग्रहण से निकला है। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 50
एक दिन मियाँ आजाद मिस्टर और मिसेज अपिल्टन के साथ खाना खा रहे थे कि एक हँसोड़ आ बैठे लतीफे कहने लगे। बोले - अजी, एक दिन बड़ी दिल्लगी हुई। हम एक दोस्त के यहाँ ठहरे हुए थे। रात को उनके खिदमतगार की बीबी दस अंडे चट कर गई। जब दोस्त ने पूछा, तो खिदमतगार ने बिगड़ी बात बना कर कहा कि बिल्ली खा गई। मगर मैंने देख लिया था। जब बिल्ली आई तो वह औरत उसे मारने दौड़ी। मैंने कहा - बिल्ली को मार न डालना, नहीं तो फिर अंडे हजम न होंगे। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 51
कई दिन तक तो जहाज खैरियत से चला गया, लेकिन पेरिस के करीब पहुँचकर जहाज के कप्तान ने सबको दी कि एक घंटे में बड़ी सख्त आँधी आनेवाली है। यह खबर सुनते ही सबके होश-हवास गायब हो गए। अक्ल ने हवा बतलाई, आँखों में अँधेरी छाई, मौत का नक्शा आँखों के सामने फिरने लगा। तुर्रा यह कि आसमान फकीरों के दिल की तरह साफ था, चाँदनी खूब निखरी हुई, किसी को सान-गुमान भी नहीं हो सकता था कि तूफान आएगा मगर बेरोमीटर से तूफान की आमद साफ जाहिर थी। लोगों के बदन के रोंगटे खड़े हो गए, जान के लाले पड़ गए या खुदा, जाएँ तो कहाँ जाएँ, और इस तूफान से नजात क्योंकर पाएँ? कप्तान के भी हाथ-पाँव फूल गए और उसके नायब भी सिट्टी-पिट्टी भूल गए। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 52
माल्टा में आर्मीनिया, अरब, यूनान, स्पेन, फ्रांस सभी देशों के लोग हैं। मगर दो दिन से इस जजीरे में बड़े गरांडील जवान को गुजर हुआ है। कद कोई आध गज का हाथ-पाँव दो-दो माशे के हवा जरा तेज चले, तो उड़ जायँ। मगर बात-बात पर तीखे हुए जाते हैं। किसी ने जरा तिर्छी नजर से देखा, और आपने करौली सीधी की। न दीन की फिक्र थी, न दुनिया की, बस, अफीम हो, और चाहे कुछ हो या न हो। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 53
रात के ग्यारह बजे थे, चारों बहनें चाँदनी का लुत्फ उठा रही थीं। एका-एक मामा ने कहा - ऐ जरी चुप तो रहिए। यह गुल कैसा हो रहा है? आग लगी है कहीं। हुस्नआरा - अरे, वह शोले निकल रहे हैं। यह तो बिलकुल करीब है। नवाब साहब - कहाँ हो सब की सब! जरूरी सामान बाँध कर अलग करो। पड़ोस में शाहजादे के यहाँ आ लग गई। जेवर और जवाहिरात अलग कर लो। असबाब और कपड़े को जहन्नुम में डालो। बहारबेगम - हाय, अब क्या होगा! हुस्नआरा - हाय-हाय, शोले आसमान की खबर लाने लगे! ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 54
रात का वक्त था, एक सवार हथियार साजे, रातों-रात घोड़े को कड़कड़ाता हुआ बगटुट भागा जाता था। दिल में था कि कहीं पकड़ न जाऊँ! जेलखाना झेलूँ। सोच रहा था, शाहजादे के घर में आग लगाई है, खैरियत नहीं। पुलिस की दौड़ आती ही होगी। रात भर भागता ही गया। आखिर सुबह को एक छोटा सा गाँव नजर आया। बदन थक कर चूर हो गया था। अभी घोड़े से उतरा ही था कि बस्ती की तरफ से गुल की आवाज आई। वहाँ पहुँचा, तो क्या देखता है कि गाँव भर के बाशिंदे जमा हैं, और दो गँवार आपस में लड़ रहे हैं। अभी यह वहाँ पहुँचा ही था कि एक ने दूसरे के सिर पर ऐसा लट्ठ मारा कि वह जमीन पर आ रहा। लोगों ने लट्ठ मारनेवाले को गिरफ्तार कर लिया और थाने पर लाए। शहसवार ने दरियाफ्त किया, तो मालूम हुआ कि दोनों की एक जोगिन से आशनाई थी। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 55
आजाद का जहाज जब इस्कंदरिया पहुँचा, तो वह खोजी के साथ एक होटल में ठहरे। अब खाना खाने का आया, तो खोजी बोले - लाहौल, यहाँ खानेवाले की ऐेसी तैसी चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय, मगर हम जरा सी तकलीफ के लिए अपना मजहब न छोड़ेंगे। आप शौक से जायँ और मजे से खायँ हमें माफ ही रखिए। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 56
आजाद तो उधर काहिरे की हवा खा रहे थे, इधर हुस्नआरा बीमार पड़ीं। कुछ दिन तक तो हकीमों और की दवा हुई, फिर गंडे-ताबीज की बारी आई। आखिर आबोहवा तब्दील करने की ठहरी। बहारबेगम के पास गोमती के किनारे एक बहुत अच्छी कोठी थी। चारों बहनें बड़ी बेगम और घर के नौकर-चाकर सब इस नई कोठी में आ पहुँचे। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 57
हुस्नआरा बेगम की जान अजाब में थी। बड़ी बेगम से बोल-चाल बंद, बहारबेगम से मिलना-जुलना तर्क। अस्करी रोज एक गुल खिलाता। वह एक ही काइयाँ था, रूहअफजा को भी बातों में लगा कर अपना तरफदार बना लिया। मामा को पाँच रुपए दिए। वह उसका दम भरने लगी। महरी को जोड़ा बनवा दिया, वह भी उसका कलमा पढ़ने लगी। नवाब साहब उसके दोस्त थे ही। हुसैनबख्श को भी गाँठ लिया। बस, अब सिपहआरा के सिवा हुस्नआरा का कोई हमदर्द न था। एक दिन रूहअफजा चुपके-चुपके उधर आईं, तो देखा, कमरे के सब दरवाजे बंद हैं। शीशे से झाँक कर देखा, हुस्नआरा रो रही हैं और सिपहआरा उदास बैठी हैं। रूहअफजा का दिल भर आया। धीरे से दरवाजा खोला और दोनो बहनों को गले लगा कर कहा - आओ, हवा में बैठें। जरीं, मुँह धो डालो। यह क्या बात है! जब देखो, दोनों बहनें रोती रहती हो? ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 58
रूम पहुँचकर आजाद एक पारसी होटल में ठहरे। उसी होटल में जार्जिया की एक लड़की भी ठहरी हुई थी। नाम था मीडा। आजाद खाना खा कर अखबार पढ़ रहे थे कि मीडा को बाग में टहलते देखा। दोनों की आँखें चार हुईं। आजाद के कलेजे में तीर सा लगा। मीडा भी कनखियों से देख रही थी कि यह कौन आदमी है। आदमी तो निहायत हसीन है, मगर तुर्की नहीं मालूम होता है। ...Read More
आजाद-कथा - खंड 1 - 59
मियाँ खोजी पंद्रह रोज में खासे टाँठे हो गए, तो कांसल से जा कर कहा - मुझे आजाद के भेज दिया जाय। कांसल ने उनकी दरख्वास्त मंजूर कर ली। दूसरे दिन खोजी जहाज पर बैठ कर कुस्तुनतुनियाँ चले। उधर मियाँ आजाद अभी तक कैदखाने में ही थे। हमीदपाशा ने उनके बारे में खूब तहकीकात की थी, और गो उन्हें इतमिनान हो गया था कि आजाद रूसी जासूस नहीं हैं, फिर भी अब तक आजाद रिहा न हुए थे। ...Read More