आज पूरे बारह साल बाद इस कमरे के उस खुले हिस्से पर बैठी हूँ, जिसके लिए बरसों बाद भी कोई सही शब्द नहीं खोज पाई...। कुछ-कुछ छज्जे जैसा, पर छज्जा तो बिलकुल नहीं था वो...। छज्जे में तो आगे का कुछ हिस्सा ज़मीन से बिना किसी सीधे सहारे के पसरा होता है न, और यहाँ तो यह खुला भाग मेरे उस कमरे का ही एक हिस्सा था...जैसे बिना जाली वाली कोई खिड़की, ‘फ़र्श से अर्श तक’ जैसे किसी वाक्य को सार्थक-सी करती हुई...।
Full Novel
उदास क्यों हो निन्नी...? - 1
आज पूरे बारह साल बाद इस कमरे के उस खुले हिस्से पर बैठी हूँ, जिसके लिए बरसों बाद भी सही शब्द नहीं खोज पाई...। कुछ-कुछ छज्जे जैसा, पर छज्जा तो बिलकुल नहीं था वो...। छज्जे में तो आगे का कुछ हिस्सा ज़मीन से बिना किसी सीधे सहारे के पसरा होता है न, और यहाँ तो यह खुला भाग मेरे उस कमरे का ही एक हिस्सा था...जैसे बिना जाली वाली कोई खिड़की, ‘फ़र्श से अर्श तक’ जैसे किसी वाक्य को सार्थक-सी करती हुई...। ...Read More
उदास क्यों हो निन्नी...? - 2
आज सोचती हूँ, उस दिन अनुज दा मुझे समझाते तो शायद एक अनजान रास्ते पर यूँ बढ़ते मेरे कदम गए होते, पर अनुज दा की ज़बान पर ताला तो खुद मैं ही डाल आई थी न...। घर छोड़ के जाते वक़्त दादी के बन्द दरवाज़े से बैरंग मुड़ जब मैं अनुज दा और सुधा दी से विदा लेने उनके कमरे में गई तो उन्होंने भरी आँखों से बस इतना भर कहा था...बहुत ग़लत किया है तुमने...और फिर पीठ फेर ली थी...। लगा था...कहीं गहरे ढेर सारी किरचें चुभी हुई असहनीय पीड़ा दे रही, पर उस दिन तो मेरे पास उस दर्द के लिए कोई मरहम भी नहीं था। ...Read More