क्या होगा आन्दोलन से...

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आज हमारे भीतर की उलझन एक और एक ग्यारह के बजाय तीन तेरह के सिद्धांत की होने लगी है। व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा हमारे सांस्कृतिक आंदोलन के सामाजिक लक्ष्यों पर भारी पड़ रही है जो न केवल उन परिवर्तनगामी बिन्दुओं को ही पीछे धकेल रही है बल्कि हमारी सामाजिक व राजनैतिक दृष्टि भी धुंधली कर रही है।