परीक्षा-गुरु - 35

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दूसरे दिन सवेरे लाला मदनमोहन नित्‍य कृत्‍य सै निबटकर अपनें कमरे मैं इकल्‍ले बैठे थे. मन मुर्झा रहा था किसी काम मैं जी नहीं लगता था एक, एक घड़ी एक, एक बरस के बराबर बीतती थी इतनें मैं अचानक घड़ी देखनें के लिये मेज़पर दृष्टि गई तो घड़ी का पता न पाया. हें ! यह क्‍या हुआ ! रात को सोती बार जेबसै निकालकर घड़ी रक्‍खी थी फ़िर इतनी देर मैं कहां चली गई ! नौकरों सै बुलाकर पूछा तो उन्‍होंनें साफ जवाब दिया कि हम क्‍या जानें आपनें कहां रक्‍खी थी ?