Kissa ek trasad fantashi ka

  • 5.5k
  • 960

कहानी किस्सा एक त्रासद फंतासी का धीरेन्द्र अस्थाना वह एक निर्जन जगह थी, जहां तूफान की तरह उन्मत्त दौड़ती राजधानी एक्सप्रेस एकाएक रुकी थी। रात के दो बजे थे। चारों ओर अंधेरा और सन्नाटा था—एकदम ठोस। न कोई आहट, न रोशनी की कोई फांक। राजधानी के किसी डब्बे की खिड़की से किसी संपन्न आदमी ने शक्तिशाली टॉर्च की रोशनी बाहर फेंकी—तभी दिखा था, दूर तक फैला बीहड़। टॉर्च की रोशनी का संतुलन बिगड़ गया। वह ऊपर, नीचे, दायें, बायें थरथरायी और फिर बुझ गयी। शायद टॉर्च—मालिक का जिस्म भयातुर हो लड़खड़ाया था। यूं दोनों बातों में कोई ताल्लुक नहीं था,