कहानी दलित ग्रंथि घर घर की कहानी है। ये हमारी सामाजिक व्यवस्था है कि हम एक दूसरे से अपनी जिंदगी के निजी फैसलों तक के लिए जुड़े हुए हैं जो कुछ मामलों में सही हो सकता है जब तक कि वह किसी की निजता और आत्मसम्मान को आहत नहीं करता लेकिन इसकी सीमा रेखा कहाँ शुरू होती है ये कभी सिखाया ही नहीं जाता।हमारी परिवार व्यवस्था में छोटे बड़े का भेद इस कदर भरा जाता है बड़ों का मान उनकी सही गलत हर बात का समर्थन किसी छोटे को जिंदगी भर बड़ा होने ही नहीं देता और जिस दिन वह (छोटा) बड़ा हो जाता है बड़े को अपना आप जाने क्यों छोटा लगने लगता है और उसी दिन संबंधों में दरकन शुरू हो जाती है जो दोनों सिरों को अकेलेपन के सिवाय कुछ नहीं देती और संस्कारों के नाम पर एक को देती है अपमानित होने की क्षुब्दता तो दूसरे को अपराधबोध।