पंजाबी कहानी जल की भीत किरपाल कज़ाक अनुवाद : सुभाष नीरव गहरी रात का चितकबरा अँधेरा फिरनी वाले घरों के ज़र्द उजाले के संग बाहरी पोखर की गंदली छाती पर बड़ी ही संकोची साजिश के साथ थिरक रहा था। ठिठुरन भरे जाड़े के दिन थे। पूरब की हल्की हवा में गांव की फिरनी पर से उतरते हुए उसने महसूस किया जैसे चारों ओर फैली रहस्यमयी चुप टोने—टोटके का रूप धारण कर लिया हो। गेहूं की बालियों से लेकर सितारों के ऊँघते झुरमुट तक। पर ऐसे गुस्ताख पलों में हमेशा ही उसकी अपनी रूह अन्तर्मन में किसी शोरभरी खामोशी के साथ