इस दुनिया से बाहर उसे दो ही चीज़ें अत्याधिक प्रिय थीं एक मां, दूसरी पढ़ाई। अब उसे उपेक्षा की दृष्टि की पहचान हो गई थी। कोमल सा मन था, जो आहत होना सीख गया था। उसे भी अपनी पिता जी की नज़रों में अच्छा होना था। कसूर का तो पता नहीं था पर इतना अवश्य समझने लगी थी कि शायद उसके अंदर कोई खूबी नहीं होगी तभी पिता जी उसे प्यार से नहीं पुचकारते। उसने सोच लिया कि वह खूब पढ़ेगी और ऐसा कुछ करेगी कि उसके पिताजी उसे भी प्यार करें, अपनी गोद में बिठायें। तरसती, लरजती कजरी अपनी धुन में रमी पढ़ाई में डूबी तो बहन किरण को जरा भी अच्छा नहीं लगा। जीवन की परिधि में कुछ ऐसी बातें हो जाती हैं जो जीते जी मार देती हैं इन्सान के मन को फिर वो मरे हुए मन के साथ जीता है उम्र भर...कुछ ऐसा ही है इस कहानी में ...