भाषायी विस्थापन के दौर में कौशलेंद्र प्रपन्न व्यक्ति के साथ भाषा भी विस्थापित होती है। व्यक्ति जीवन यापन के लिए या फिर बेहतर जिंदगी के लिए गांव,देहात,जेवार छोड़ कर शहरों, महानगरों की ओर पलायन करता है। पलायन कहें या विस्थापन लेकिन यह प्रक्रिया बड़े और व्यापक स्तर पर इतिहास में होता रहा है जो बतौर आज भी जारी है। अपनी अपनी हैसियत अवसर के अनुसार इस विस्थापन में हजारों हजार गांव,घर खाली हो चुके हैं। जो एक बार गांव से निकल गया वह दुबारा अपने गांव लौटने की लालसा रखते हुए भी नहीं लौट पाता। गांव वापसी की पीड़ा व्यक्ति को ताउम्र सालती रहती है। बुढ़ापे में गांव जरूर लौटेगा इस आशा में गांव में घर भी बनाता है। लेकिन वे घर उसके लौटने के इंतजार में ढहने लगते हैं, लेकिन वही नहीं लौटता।