हरे रंग का खरगोश

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मैं प्रभुनाथ की बगीची से पैदल पैदल वापस लौट रहा था. मैंने वहां करीब ढाई घंटे बिताये थे. यहाँ आते समय मैं जितना झुंझलाया हुआ और अपने आप पर खीझ में था, वापसी में मैं उतना ही पुलकित और प्रसन्न था. नहीं.. प्रसन्न मेरी मनःस्थिति के लिए सही शब्द नहीं है. वहां एक मौत का प्रसंग था जिसने मेरी मनःस्थिति यकायक बदल दी थी, तो मैं प्रसन्न कैसे कहा जा सकता हूँ.. लेकिन सहज और उजास भरा तो मैं था ही.. मेरे भीतर की सारी झुंझलाहट और खीझ मिट गई थी और जो मन में बचा था उसमें शोक राग भी उतना सघन नहीं था..