चुनने का अपराधबोध

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बोलने को उद्दत होकर चुप रहने का उसका लंबा इतिहास रहा है। जब प्याज-टमाटर के दाम बढ़े, तब भी वह चुप रहा। दालें उसके बूते से बाहर हुईं, तब भीतर शब्द खदबदाने लगे। गले में आकर अटक गए। दम घुटने लगा। तब भी उसने जान की जोखिम पर खुद को बोलने से रोक लिया। जब सरसों तेल के भाव भी बढ़ गए, तो जी में आया, अब तो एक दफा बोल ही दे। और नहीं तो बोलकर पिंड छुड़ाए। सिर से बोझ भी उतर जाएगा। लेकिन आदत नहीं थी। जुबान तालू से चिपकी थी। अब गरीब आदमी बोलने का अभ्यास करे कि जीने की जद्दोजहद! तालू से जुबान हटाने में ताकत लगाए कि दो वक्त की रोटी कमाने में!