संस्कार

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कुमार ने कभी नही सोचा, कि यह दिन भी देखना होगा। उम्र के चौथेपन में बेटे ने ख़ुशी देने की बजाय स्तब्ध कर दिया। कहने-सुनने को कुछ बाकी नही रहा था। विजातीय धर्म की लड़की से यदि प्रेम-विवाह करना ही था तो, हमे पहले ही बता दिया होता, हमारी जबान तो नही जाती! क्या सोचेगा हमारा बचपन का मित्र, रमेश जिसकी होनहार लड़की के साथ इस तरह रिश्ता टूटने का दर्द जुड़ जायेगा। उसका तो कोई कुसूर ही नही इन सबमे सबकुछ दोनों की मर्जी जानकर ही तय हुआ था