छोटे से फ़्लैट में जाने कितनी पुरानी यादों के साक्षी सामान जमा हैं जिन्हें फेंकने का मन नहीं होता. छोटी सी पेंशन के सहारे महंगाई से लगातार चलती लड़ाई है. कारण तो बहुत हैं पर सबका परिणाम एक है. शोपिंग मेरे लिए मजबूरी है, शौक नहीं. अकबर इलाहाबादी के शब्दों में “दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ , बाज़ार से निकला हूँ खरीदार नहीं हूँ.” फ़िर भी जब बाज़ार दूकानों से बाहर निकल कर फूटपाथों पर हाबी हो जाए तो उन पर सजाये हुए बिकाऊ माल से टकराने, गिरने के डर से ही सही, आँखें खोल कर चलना पड़ता है.