यह किसी स्वप्न के छिन जाने जैसा था। वैसा ही था जैसे कोई बहुत प्रिय मूर्ति अचानक ही गिरकर टूट गई हो। नहीं...यह उससे भी कुछ ज्यादा था, जैसे आपका कोई खूबसूरत खिलौना एक दिन आंखें तरेरकर यह कहे कि तुम मुझसे खेलने लायक नहीं हो, फिर वह अपने नन्हे-नन्हे कदम बढ़ाते हुए घर से बाहर निकल जाए बिना हाथ हिलाए हुए। धनंजय शर्मा के सामने इस वक्त कुछ ऐसे ही दृश्य घूम रहे थे। उनका बेटा विक्रांत पिछले चौदह वर्षों से उनके लिए एक खिलौना ही तो था। वह चाबी वाले गुड्डे की तरह था, रिमोट से नाचने वाली कठपुतली की तरह था।