Yatra Kabhi Khatm Nahi Hoti

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गाड़ी चल पड़ी है, और गाड़ी के साथ वह भी। शायद वह नहीं, उसकी देह-मात्र। थकी, खंडित, बोझिल और भीतर की ओर मार करती हुई। लड़ाई से पहले ही पराजित और टूटी हुई देह। पर मन नहीं और मन के भीतर गहरे धँसीं, जोरदार ढंग से अपने होने का एहसास कराती दो आँखें नहीं। वे अभी वहीं हैं, स्टेशन पर। वे जिन दो और आँखों को देख रही हैं, वे झुकी और उदास हैं। भीतर ही कुछ खोजती, पलटती हुई। कुछ कहना चाहती हैं, पर विवश हैं। शायद वे अपनी बात अपने, बिलकुल अपने ढंग से कहना चाहती हैं। पर इतने लोगों की भीड़ देखकर असमंजस में हैं, हताश और चुप हैं।