मेरी चुनिंदा लघुकथाएँ - 17

  • 798
  • 186

  लघुकथा क्रमांक : 45  चिर युवा - गाँधी राष्ट्रपिता की प्रतिमा के समक्ष कुछ झुकते हुए वह स्वयंघोषित महामानव बुदबुदाया, "खुद पर और ना इतराना ! झुका तो मैं अपने गुरु के पाँवों में भी था। उनके हश्र को देखकर तुम्हें शायद अपने अंजाम का अंदाजा हो गया होगा।"ऐसा लगा मानो स्मित हास्य के साथ वह प्रतिमा एकटक उसी की तरफ देख रही हो और उसकी नादानी पर हँस रही हो इस आशय के साथ कि, 'प्रणाम करते करते तुमने जिस वयोवृद्ध नेता के  पाँवों तले की जमीन खींच ली वह तुम्हारे राजनीतिक गुरु थे,.. मैं तो गाँधी हूँ,