“शंकर चाचा, ज़ल्दी से दरवाज़ा खोलिए!” बाहर से कोई इंसान के चिल्लाने की आवाज़ आई। आवाज़ के साथ कोई आँगन का दरवाज़ा धड़धड़ाने लगा, जो पूरी तरह से जंग खाए बैठा था और पक्की दीवार पर टिका हुआ था। आवाज़ में उतावलापन साफ़ झलक रहा था। “अरे, आ रहा हूँ, ज़रा धीरज रखिए।” पचास साल का पुरुष खाट से खड़ा हुआ। चलने से पहले वह बड़बड़ाया, “एक तो घिसापिट दरवाज़ा है और लोग वो भी तोड़ देंगे।” उसने सफ़ेद रंग का कमीज़ और पायजामा पहना हुआ था। नए कपड़े पहने होते तो वह ज़रूर बगुले के पंख की