बैठा था मैं आंखें मूंद,भजन करता अपने राम लला का ।विश्वास न हुआ इन आंखों पर,जब साक्षात चेहरा दिखा उनका ।बैठे थे वो आकर सामने,सिर पर मेरे हाथ था उनका ।मैं बस ताक रहा था उनको,होकर के बिलकुल अवाक सा ।देख मुझको ऐसे तब,सखा मेरा मुस्करा उठा ।लेकर हाथों को मेरे हाथों में अपने,वो मुझसे यूं बोल पड़ा ।क्या मित्र, नाराज हो क्या,क्या नहीं हुई, तुमको प्रसन्नता !भूल गए क्या उस दिन को जब,तुमने की थी मुझसे मित्रता !जब मेरे इन कानों को,मधुर वाणी ने उनकी छुआ ।तब जाकर मैं पगला था,वापस अपने होश में लौटा ।मर्यादा का पालन करते