चतुर्थ अध्याय सरित तीर पर, बुर्ज बैठकर, जल प्रवाह की क्रीड़ा देखी। उठते थे बुलबुले, घुमड़ती , अन्तर मन की पीड़ा देखी।। तीव्र दाहतम अन्तर ज्वाला, खौल रहा हो जैसे पानी। छर्राटे-सा ध्वनित हो रहा, पेर रहा ज्यौं कोई घानी।।86।। बायु वेग से, नभ मण्डल में, घुमड़ाते घन, घोरै करते। जलधारा में उठत बुलबुले, किसका वेग, वेग को भरते।। लगता विधि ने, निज रचना में, कितने ही ब्राह्माण्ड बनाए। अगम निराली ही माया थी, क्षण निर्मित, क्षण ही मिट जाए।।87।। हो मदमत लहर जब उठती, तट को उद्बोधन सा देती। अथवा प्रिय की गोद, भुजाओं में लिपटी अंगड़ाई लेती।। धारा