पूर्व से गभुआरे घन ने, करी गर्जना घोर। दिशा रौंदता ही आता था, तम का पकड़े छोर।। ग्राम मृतिका उटज, प्यार से करतीं थीं, जो प्यार। जिसे सहारा, महानीम का, मिलता था हर बार।। 5।। खड़ा उटज के मध्य, कि जैसे- गिरवर नीचे श्याम। अपने आश्रय से कुटिया को, देता सदां विराम।। यहां बैठकर, जन-मानव को, मिलती न्यारी शांति। जैसे कल्पवृक्ष के नीचे, मिट जातीं, सब भ्रान्ति।।6।। मंद-मंद बह रहा पवन तहां, कुटिया के हर द्वार। मनहु सरस्वती की वीणा के, बजते हों सब तार।। सूरज घन पट से झांखा, ज्यौं मांद मध्य से शेर। चांदी की वर्षा-सी हो रही,