कोमल की डायरी - 9 - अब बोलो ?

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नौ अब बोलो ?                         मंगलवार, चैबीस जनवरी, २००६            बहादुर जैसे लोग मुझसे मिलते हैं और मैं कुछ कर नहीं पाता। जो दुःखी हैं वे किसी आशा से मुझसे अपना दुःख बताते हैं। अपनी बेचारगी पर दुःखी हूँ मैं। मूक दर्शक बन कर रहना बहुत ठीक है क्या? गांधी की मूर्ति के सामने एक पेड़ के निकट बैठा हूँ सुमित और जेन की प्रतीक्षा में। बारह बज गए। पीड़ितों को संगठित होना होगा। मैं बुदबुदाता हूँ। कौन करेगा यह? जो असहाय हैं उन्हें न इतनी समझ है