रावी की लहरें - भाग 17

  • 690
  • 264

बाबा सन्ता सिंह   सतलज नदी धीमी चाल से बह रही थी । उसके दोनों किनारों पर दूर-दूर तक रेत फैली हुई थी। वैसाख की तेज दोपहरी में रेत के कण चांदी के समान चमक रहे थे। चारों ओर तेज धूप फैली हुई थी, इसलिए दूर-दूर तक कोई आदमी दिखाई नहीं दे रहा था। झुलसा देने वाली गर्म लू चल रही थी ।  तभी दूर कहीं से किसी गाने की आवाज सुनाई पड़ी | आवाज़ धीरे - धीरे पास आती गई। यह आवाज़ सन्तासिंह की थी । सन्तासिंह तन्मय होकर भजन गा रहे थे।  सन्तासिंह को आस-पास के गाँवों का