45सभा को छोडकर केशव समुद्र तट पर आ गया। समुद्र की अविरत जन्मती, प्रवाहित होकर तट तक जाती तथा तट पर ही मृत हो जाती लहरों को देखता रहा। उसके मन में कोई भी लहर इसी प्रकार गतिमान न थी। वह शांत था। स्थिर था। प्रसन्न था। पश्चिमाकाश की तरफ गति कर रहे सूर्य की किरणें उसके मुख की कान्ति में वृद्धि कर रही थीं। केशव ने आँखें बंद की, ध्यान मुद्रा में बैठ गया। ओम् का नाद करने लगा। एक अंतराल के पश्चात उसने ध्यान सम्पन्न किया, आँखें खोली। सन्मुख उसके वही रत्नाकर था जो अपने कार्य में व्यस्त था। “एक