एकरात के दो बजे थे, लेकिन कमरे की बत्ती जली हुई थी। मँुह से चादर हटाकर मैंने देखा तो अवाक् रह गया। शाबान रो रहा था। मैंने उठकर घड़ी एक बार फिर देखी और उसके नजदीक पहुँच गया। वह मेरी ओर नहीं देख रहा था। देख भी रहा हो तो यह जान पाना बहुत मुश्किल था कि वह कहाँ देख रहा है क्योंकि पानी के दो बड़े मोती उसकी आँखों पर जड़े थे। डबडबाई आँखों के पाश्र्व से जैसे अदृश्य सिसकियों का नाद बज रहा था। मैंने करीब पहुँचकर हाथ उसके कंधे पर रखा किन्तु उसने मेरा हाथ झटक दिया।