शून्य से शून्य तक - भाग 38

38=== यह सब लिखते-लिखते आशी फूट-फूटकर रोने लगी थी | हर दिन इस समय वह या तो बाहर लॉबी में आकर ढलते हुए सूरज की लालिमा को पर्वतों से नीचे पिघलते हुए देखने का आनंद लेती थी | गहरा गुलाबी आसमान जब तक सलेटी न हो जाता वह वहीं खड़ी पर्वत-श्रंखला की ओर टकटकी लगाए रहती | आज वह बाहर नहीं जा सकी | अपनी कलम एक ओर कागज़ों के बीच रखकर उसने कमरे का दरवाज़ा बंद कर लिया और चुपचाप अपने बिस्तर पर आ लेटी | उसकी आँखों से आँसुओं का प्रवाह थमने का नाम ही नहीं ले रहा