दो बूँद आँसू - भाग 1

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भाग -1 प्रदीप श्रीवास्तव सकीना यह समझते ही पसीना-पसीना हो गई कि वह काफ़िरों के वृद्धाश्रम जैसी किसी जगह पर है। ओम जय जगदीश हरे . . . आरती की आवाज़ उसके कानों में पड़ रही थी। उसने अपने दोनों हाथ उठाए कानों को बंद करने के लिए लेकिन फिर ठहर गई। वह समझ नहीं पा रही थी कि आख़िर वो यहाँ कैसे आ गई।  उसकी नज़र सामने दीवार पर लगी घड़ी पर गई, जिसमें सात बज रहे थे। खिड़कियों और रोशनदानों से आती रोशनी से वह समझ गई कि सुबह के सात बज रहे हैं। वह बड़े अचरज से