जेहादन - भाग 1

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भाग -1 प्रदीप श्रीवास्तव  वह चार साल बाद अपने घर पहुँची लेकिन गेट पर लगी कॉल-बेल का स्विच दबाने का साहस नहीं कर पाई। क़रीब दस मिनट तक खड़ी रही। उसके हाथ कई बार स्विच तक जा-जा कर ठहर गए। जून की तपा देने वाली गर्मी उसे पसीने से बराबर नहलाए हुए थी। माथे से बहता पसीना बरौनियों पर बूँद बन-बन कर उसके गालों पर गिरता, भिगोता और फिर उसके स्तनों पर टपक जाता।  चढ़ती दुपहरी, चढ़ता सूरज आसमान से मानो अग्नि-वर्षा कर रहे थे। उसका गला बुरी तरह सूख रहा था। पपड़ाए होंठों पर जब वह ज़ुबान फेरती तो