[नीलम कुलश्रेष्ठ ] कहतें हैं लेखकों के काम की कीमत उनके मरने के, दुनियाँ से जाने के बाद पहचानी जाती है किन्तु मैं बेहद खुश हूँ, बेहद.क्योंकि मैंने वृन्दाबन की माइयों [बंगाली विधवाओं ] के दारुण व कठिनतम जीवन की समस्या को `धर्मयुग `पत्रिका जैसे सशक्त माध्यम से सन १९८० में राष्ट्रीय स्तर पर जोड़ा था. देश ने पहली बार इनकी समस्यायों को मेरे इस सर्वे से जाना था। हो सकता है मथुरा या वृन्दाबन के समाचार पत्रों में इनके विषय में तब कुछ प्रकाशित होता रहा हो किन्तु मेरा ये वृहद सर्वे एक शिलालेख था जिसने कृष्ण की नगरी