कृष्नदास कलि जीति न्यौति नाहर पल दीयो। अतिथि धर्म प्रतिपाल प्रगट जस जग में लीयो॥ उदासीनता अवधि कनक कामिनि नहिं रातो। राम चरन मकरंद रहत निसि दिन मदमातो॥ गलतें गलित अमित गुन सदाचार सुठि नीति। दधीचि पाछे दूसरी (करी ) कृष्णदास कलि जीति॥१८५॥महान् सिद्धसन्त पयहारी श्रीकृष्णदास जी जयपुरमें श्रीगलताजी की गद्दी पर विराजते थे। आप अनन्त दिव्य गुणों से सम्पन्न, बड़े सदाचारी और अच्छे नीतिज्ञ थे। श्रीदधीचिजी के बाद इस कलियुगमें उत्पन्न होकर कलिकाल के विकारों पर आपने विजय प्राप्त की। अतिथि के रूपमें प्राप्त सिंहको आपने न्यौता दिया और अपने शरीरमेंसे मांस काटकर उसे भोजन के लिये अर्पण किया।