उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 30

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भाग 30 दीदी का जीवन समय की नदी में चलते-चलते सहसा जैसे मँझधार में अटक गया हो। जीवन की रूकी हुई गति को दीदी किसी प्रकार गति देने का प्रयास कर रही थी। किन्तु ठहरे हुए जल में उलझी जलकुम्भियों की भाँति जीवन उलझ कर ठहर-सा गया था। इन उलझाी जलकुम्भियों में मार्ग तो दीदी को स्वंय बनाना होगा। दीदी जो कुछ भी करेगी अपनी इच्छा के अनुसार करेगी। किसी का सहयोग विशेष रूप से मेरा तो कदापि नही। दीदी किसी पूर्वागह से ग्रस्त है या कोई मनोग्रन्थि जो उसे ऐसा करने से रोकती है। एक दिन माँ का फोन