लागा चुनरी में दाग़--भाग(११)

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दूसरे दिन शाम के वक्त मैं फिर से छत पर पहुँचा,मैं वहाँ बैठकर किताब पढ़ने लगा,तभी थोड़ी देर के बाद वो अपनी छत पर आकर मुझसे बोली... "कैंसे हैं जनाब!", मैं ने अपना चेहरा किताब से हटाया और उसकी ओर देखकर बोला... "जी! बिल्कुल दुरुस्त हूँ,आप सुनाइए कि कैंसीं हैं", "जी! अल्लाह के फ़ज़्ल से मैं भी ठीक हूँ",वो बोली... "अपना नाम नहीं बताया आपने",मैंने उससे कहा... "जी! महज़बीन...महज़बीन नाम है मेरा और आपका",वो बोली... "जी! नाचीज़ को शौकत कहते हैं",मैंने उससे कहा.... और उस दिन के बाद हम दोनों की मुलाकातों का सिलसिला बढ़ने लगा,वो शाम को छत पर