श्रीविष्णुपुरीजीने कलियुगके प्रपंची जीवोंके कल्याणके लिये बड़े भारी खजानेको (भक्तिको) इकट्ठा किया। उन्होंने वैष्णवधर्मको ही सर्वश्रेष्ठ माना। अन्य अवैदिक धर्मोकी ओर देखा भी नहीं। जिस प्रकार कसौटीपर सोनेकी रेखाके सामने पीतलकी रेखा चमकती ही नहीं है, उसी प्रकार उन्होंने अपनी बुद्धिकी कसौटीपर वैष्णवधर्मको कसकर सच्चा—खरा पाया और अन्य धर्मोको तुच्छ देखा। आपने संतसंगको श्रीकृष्णकी कृपारूपी लताका फल बताया। करोड़ों ग्रन्थोंका तात्पर्य (भक्ति) केवल तेरह विरचनों (अध्यायों)—में गाया। श्रीमद्भागवतरूपी महासमुद्रसे रत्नरूपी श्लोकोंको निकालकर ' भक्तिरत्नावली' की रचना की..।श्रीविष्णुपुरीजीका चरित संक्षेपमें इस प्रकार है— श्रीविष्णुपुरीजी परमहंसकोटिके संन्यासी थे और तिरहुतके रहनेवाले थे। ये बड़े ही प्रेमी भक्त तथा विद्वान् थे। इनकी भक्तिरत्नावलीका