फिर मैं उस पुराने मकान के पास पहुँचा और मैंने किवाड़ों पर लगी साँकल को धीरे से खड़काया,तब भीतर से कोई जनाना आवाज़ आई और उसने पूछा.... "कौन...कौन है?" तब मैंने कहा.... "मैं हूँ जी! एक भटका हुआ मुसाफिर" "सच कहते हो ना तुम! झूठ तो नहीं बोल रहे,पता चला मैं किवाड़ खोल दूँ और तुम दंगाई निकले तो",वो बोली... "सच! कहता हूँ जी! मैं हालातों का मारा एक भटका हुआ मुसाफिर हूँ,कोई दंगाई नहीं हूँ,भूखा प्यासा भटक रहा हूँ,कुछ खाने पीने को मिल जाता तो बहुत मेहरबानी हो जाती",मैंने कहा... "तुम वहीं ठहरो,मैं अभी दरवाजा खोलती हूँ", और ऐसा