रामायण की कथा भजन के माध्यम से मेरे शब्दों में - 4

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जनक दुलारी कुलवधू दशरथजी की,राजरानी होके दिन वन में बिताती है,रहते थे घेरे जिसे दास दासी आठों याम,दासी बनी अपनी उदासी को छुपाती है,धरम प्रवीना सती, परम कुलीना,सब विधि दोष हीना जीना दुःख में सिखाती है,जगमाता हरिप्रिया लक्ष्मी स्वरूपा सिया,कूटती है धान, भोज स्वयं बनाती है,कठिन कुल्हाडी लेके लकडियाँ काटती है,करम लिखे को पर काट नही पाती है,फूल भी उठाना भारी जिस सुकुमारी को था,दुःख भरे जीवन का बोझ वो उठाती है,अर्धांगिनी रघुवीर की वो धर धीर,भरती है नीर, नीर नैन में न लाती है,जिसकी प्रजा के अपवादों के कुचक्र में वो,पीसती है चाकी स्वाभिमान को बचाती है,पालती है बच्चों