कोई तुमसा नहीं

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1.इस सम्पूर्ण सृष्टि केसमस्त अनुबंधों से परेमेरे प्रेम की पराकाष्ठा सिर्फ तुम हो ,सिर्फ तुम ।लिप्त रही मैं सदा ही बेबस मर्यादा की बुझती ज्योति में,भस्म होती मेरी हर कामना,अंतर्मन की आत्मदीप्ति में,मेरी अंतहीन लालसाओं से परे,मेरी उत्कंठाओं की पराकाष्ठासिर्फ तुम हो ,सिर्फ तुम ।तलाशती रही मैं हर खुशी,गूंगे बहरे इन चेहरों में,जकड़ लिया मेरी हर प्रीति को,तृष्णा के भयानक अंधेरों ने,मेरी खुशियों की अनबुझी तिषा से परेमेरी आत्मतृप्ति की पराकाष्ठा,सिर्फ तुम हो ,सिर्फ तुम।क्या होता है पाप -पुण्य और सही गलत क्या होता है ?कोई स्वार्थ नहीं ,ना कोई व्यसन है 'ये'फिर प्रेम ही अक्सर क्यों रोता है ?जनम