श्री प्रह्लादजी

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स उत्तमश्लोकपदारविन्दयोनिषेवयाकिञ्चनसङ्गलब्धया । तन्वन् परां निर्वृतिमात्मनो मुहुदुःसङ्गदीनान्यमनःशमं व्यधात्॥ (श्रीमद्भा० ७।४।४२) दैत्यराज हिरण्यकशिपु के चार पुत्र थे। उनमें प्रह्लाद अवस्था में सबसे छोटे थे, किंतु भगवद्भक्ति तथा अन्य गुणों में सबसे बड़े हुए। संसार में जितने भक्त हो गये हैं, प्रह्लाद जी उन सबके मुकुटमणि हैं। वे बाल्यकाल से ही भगवान्‌ का नामकीर्तन और गुणकीर्तन करते-करते अपने आपको भूल जाते थे। कभी वे प्रेम में बेसुध होकर गिर पड़ते, कभी कीर्तन करते-करते नाचते और कभी भगवन्नामों का उच्चारण करते हुए ढाढ़ मारकर रोने लगते। इनके पिता असुरों के राजा थे। देवताओं से सदा उनकी खटपट रहती थी। एक बार देवताओं को