भारत की रचना - 4

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भारत की रचना/धारावाहिक/ चतुर्थ भाग रात बढ़ रही थी। उसके हॉस्टल की सारी लड़कियां उसके दिल के जज्बातों से बेखबर, जैसे मदहोश होकर सो चुकी थीं। स्वयं उसकी रूम-मेट अपनी नींद में बेसुध थी। परंतु रचना, वह कहीं अन्यत्र ही थी। उसका दिल कहीं और जाकर जैसे खो गया था। अपने दिल की प्यारभरी स्मृतियों में वह अभी तक जाग रही थी। रात्रि का दूसरा पहर आरम्भ हो चुका था। वातावरण किसी सर्द लाभ के समान ठंडा पड़ गया था। आकाश पर तारिकाएं छोटे-छोटे नासमझ और नादान बच्चों के समान रचना को देखती थीं और शायद उसकी मनोदशा को समझ